उत्तरायणी पर 14 की रात होगी रानीबाग में विशेष पूजा

उत्तरायणी पर 14 की रात होगी रानीबाग में विशेष पूजा

हल्द्वानी, अमृत विचार: उत्तरायणी पर्व पर चित्रशाला रानीबाग में गार्गी नदी के किनारे रात और दिन का विशाल मेला लगता है, जिसमें दूर दूर से सूर्यवंशी कत्यूरी वंशज पहुंचकर अपनी कुलदेवी जिया रानी को याद करते और ' जै जिया ' के घोष के साथ जागर लगाते हैं। वे अपने पारंपरिक वेशभूषा , वाद्य यंत्र और ध्वज के साथ टोलियों में आते हैं। चित्रशाला व जिया रानी की गुफा के दर्शन कर नदी मे स्नान करते हैं।


स्थानीय इतिहास के जानकार शिक्षक दीपक नौगाईं 'अकेला ' बताते हैं कि जियारानी कत्यूरियों के 47वें राजा प्रीतमदेव की महारानी थी। प्रीतमदेव को पिथौराशाही भी कहा गया है जिसके नाम पर पिथौरागढ़ नाम पड़ा। जियारानी यानी मौला देवी जो हरिद्वार के राजा अमरदेव पुंडीर की बेटी थी, प्रीतमदेव की उसकी दूसरी पत्नी थी। किसी बात पर पति से नाराज होकर वह रानीबाग चली आईं और लगभग 12 वर्ष यहां रहीं। उसने यहां सेना का गठन भी किया और विशाल बाग लगाया, जिस कारण यहां का नाम रानीबाग पड़ा। एक बार जब रानी नदी में नहा रही थी, तब रोहिल्लो के सरदार ने नदी पार करते समय रानी के लंबे सुनहरे बालों को देखा। रोहिल्ले रानी की तलाश में चित्रशिला तक पहुंचे। रानी स्नान के बाद अपना घाघरा पत्थर में रखकर गुफा में चली गई। रोहिल्लो ने रानी को गुफा में कैद कर दिया।


रानी के सैनिकों ने रोहिल्लों का सामना किया पर हार गए। जब यह सूचना प्रीतमदेव के पास पहुंची तो उसने भतीजे ब्रहमदेव को सेना के साथ भेजा। रानी को छुड़ा लिया गया। प्रीतमदेव की मृत्यु के बाद मौला देवी ने बेटे दुलाशाही के संरक्षक के रूप में शासन किया। मौला देवी राजमाता थी। माता को पहाड़ में ' जिया ' भी कहते हैं, इसलिए मौला देवी ' जियारानी ' कहलायी।


बद्रीदत पाण्डे लिखित ' कुमाऊं का इतिहास ' में जिक्र है कि कत्यूरी सातवीं शताब्दी में अयोध्या से यहां आए थे। इनका पहला राजा वासुदेव था। कहते हैं कि वो बौद्ध था पर यहां आकर ब्राह्मण बन गया। पहले वे बैजनाथ में आए, जिसे कत्यूर घाटी कहा जाता है। इनका शासन कुमाऊं, गढ़वाल से लेकर नेपाल तक फैला था। यहां नदी किनारे स्थित रंग बिरंगी शिला के विषय में भी किंवदंतियां प्रचलित हैं। कुछ लोग इसे रानी का घाघरा कहते हैं तो दूसरी ओर यह माना जाता है कि यहां पर सुतप ब्रहम श्रृषि ने कठोर साधना की थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर विष्णु भगवान ने विश्वकर्मा को बुलाकर इस शिला का निर्माण करवाया और उसमें बैठकर श्रृषि को वरदान दिया।


 मेले में रात को कत्यूरी वंशज जागर लगाते हैं और तड़के नदी में स्नान कर अपने घरों को लौट जाते हैं। अगले दिन मेला लगता है। बड़ी संख्या में लोग अपने बच्चों का उपनयन संस्कार कराते हैं। स्थानीय लोग कत्यूरी वंशजों के लिए निशुल्क भोजन व आवास की व्यवस्था करते हैं। लेकिन मेला समिति के अभाव में मेले को उचित पहचान नहीं मिल पाई है।

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