दुर्भावनापूर्ण अभियोजन से निपटने के लिए प्रभावी न्यायतंत्र की आवश्यकता: हाईकोर्ट

दुर्भावनापूर्ण अभियोजन से निपटने के लिए प्रभावी न्यायतंत्र की आवश्यकता: हाईकोर्ट

प्रयागराज। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने आईपीसी की धारा 302 के तहत अकारण आजीवन कारावास की सजा भुगतने वाले अभियुक्तों के प्रति गहरी संवेदना और चिंता जताते हुए कहा कि यह अत्यंत खेदपूर्ण स्थिति है कि दुर्भावनापूर्ण अभियोजन के मामलों को रोकने के लिए कोई ठोस न्यायिक तंत्र विकसित नहीं किया जा सका है। 

हालांकि संविधान के अनुच्छेद 21 में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जाएगा, लेकिन गलत अभियोजन के कारण निर्दोष व्यक्तियों को कई वर्षों तक जेल में अवांछित कारावास के आघात से गुजरना पड़ता है। ऐसे अभियुक्तों को हाईकोर्ट/ सुप्रीम कोर्ट द्वारा लंबी सुनवाई के बाद अगर अंततः बरी कर भी दिया जाए तो उन्हें परिवार में स्वागत योग्य सदस्य के रूप में कभी स्वीकार नहीं किया जाता है। परिवार में उनका स्थान अन्य सदस्यों द्वारा भरा जाता है। 

संपत्ति को परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा हड़प लिया जाता है और जेल में लंबे समय तक रहने के बाद  राज्य ऐसे अभियुक्त को कुछ आर्थिक मुआवजा दे सकता है, जिससे उन्हें कुछ सांत्वना मिल जाए और उनके खिलाफ लगाए गए निराधार आरोपों से बरी होने के बाद उन्हें परिवार पर बोझ के रूप में ना देखा जाए, लेकिन सरकार द्वारा दिया गया मुआवजा त्रुटिपूर्ण न्यायतंत्र की कमी को ढॅंक नहीं सकता। 

भारतीय न्याय व्यवस्था के ढीलेपन का दंश झेल रहे अभियुक्तों की स्थिति पर उक्त दुखद टिप्पणी न्यायमूर्ति सिद्धार्थ और न्यायमूर्ति सैयद कमर हसन रिजवी की खंडपीठ ने अपीलकर्ता उपेंद्र उर्फ बलवीर की याचिका पर सुनवाई करते हुए की। याची ने अपर सत्र न्यायाधीश (तृतीय) जालौन, उरई द्वारा पारित आदेश को चुनौती देते हुए आपराधिक अपील दाखिल की थी। 

निचली अदालत ने याची को आजीवन कारावास एवं 1000 रुपए के जुर्माने की सजा सुनाई गई थी। अपीलकर्ता के खिलाफ वर्ष 2009 में पुलिस स्टेशन माधवगढ़, जालौन में आईपीसी की धारा 302 के तहत दहेज हत्या के आरोप में मृतका के पिता द्वारा मुकदमा पंजीकृत कराया गया था। तथ्यों पर विचार करते हुए कोर्ट ने पाया कि अपीलकर्ता ने बिना किसी अपराध के जमानत पर रिहा होने से पहले लगभग 13 साल की कैद काटी थी, जिसके लिए वह राज्य से भारी मुआवजे का हकदार है। 

कोर्ट ने वैधानिक ढांचे की इस तकनीकी कमी को उजागर करते हुए कहा कि सैकड़ों ऐसे निर्दोष व्यक्ति हैं, जिन पर गलत तरीके से मुकदमा चलाया जाता है और वर्षों बाद उन्हें बरी कर दिया जाता है। कारावास से आरोपी के परिवार को होने वाली भावनात्मक और शारीरिक क्षति अकल्पनीय होती है, क्योंकि कारावास और सजा का कलंक पीढ़ियों तक चलता रहता है। कुछ मामलों में ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं, जहां विवाह के प्रस्ताव को पैतृक वंश में सगे-संबंधियों के कारावास के कारण ठुकरा दिया जाता है।

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