Bareilly News: ध्रुवीकरण की आंधी में भी जातिगत समीकरण थामे रखने की कोशिश
बरेली, अमृत विचार। भाजपा की ओर से लोकसभा चुनाव में प्रत्याशियों की चौथी सूची भी शुक्रवार को जारी कर दी गई लेकिन बरेली मंडल की बरेली, बदायूं और पीलीभीत की सीट इसमें भी रिक्त छोड़ दी गई।
इसे तीनों सीटों पर प्रत्याशी बदलने की तैयारी के बीच हाईकमान की पसोपेश का संकेत माना जा रहा है। सबसे बड़ा पेच तीनों सीटों के जातीय समीकरणों पर फंसा हुआ है। जातीय समीकरण साधने को इतना ज्यादा महत्वपूर्ण माना जा रहा है कि सिर्फ भाजपा नहीं, सपा और कांग्रेस भी इसी में उलझे हुए हैं।
लोकसभा के पिछले दो चुनाव धार्मिक आधार पर हुए ध्रुवीकरण पर आधारित रहे हैं लेकिन इसके बावजूद इस चुनाव में जातीय समीकरण पर कोई पार्टी जोखिम उठाने के लिए तैयार नहीं दिख रही है। भाजपा और इंडिया गठबंधन की ओर से मंडल की पांच सीटों पर जहां-जहां भी उम्मीदवारों की घोषणा की है, वहां जातिगत वोटों का पूरा ख्याल रखा है।
पीलीभीत, बदायूं और बरेली में अगर भाजपा अपने मौजूदा सांसदों को फिर चुनाव में उतार देती तो शायद इन सीटों पर पार्टी को ज्यादा उलझन का सामना न करना पड़ता लेकिन तीनों प्रत्याशियों को बदलने की कोशिशों ने उसे उलझा दिया है। तीनों सीटों पर कई और दावेदार हैं लेकिन दो सवाल उनके नामों की घोषणा नहीं होने दे रहे हैं। एक तो यह कि इनमें से कोई चेहरा उतारने के बाद चुनाव का गणित बदल तो नहीं जाएगा और दूसरा कि नया चेहरा में अपनी बिरादरी के वोटों को खींचने का माद्दा दिखा पाएगा या नहीं।
बरेली में संतोष गंगवार की दावेदारी को कई लोगों ने चुनौती दे रखी है । दरअसल, बरेली संसदीय क्षेत्र में मुसलमानों के बाद दूसरी सबसे बड़ी मतदाता संख्या कुर्मियों की है। संतोष गंगवार के साथ दूसरा प्लस प्वाइंट उनका दूसरी जातियों के साथ मुसलमानों में भी कुछ प्रभाव होना है। इस कारण उनकी जगह दूसरे कुर्मी प्रत्याशी की तलाश अब तक अंतिम स्तर तक नहीं पहुंची है। कई दिन से संतोष दिल्ली में हैं और टिकट की लड़ाई में कोई कसर बाकी छोड़ने को तैयार नहीं हैं।
जातिगत समीकरणों का ऐसा ही पेच बदायूं में भी फंसा हुआ है जहां पिछली बार करीब तीन लाख मौर्य-शाक्य मतदाताओं के दम पर स्वामी प्रसाद मौर्य की बेटी संघमित्रा भाजपा के टिकट पर चुनी गई थीं। बदायूं में साढ़े सात लाख से ज्यादा वोट मुसलमान और यादवों के ही हैं लिहाजा धार्मिक ध्रुवीकरण के बावजूद प्रत्याशी का मौर्य का बिरादरी का होना भाजपा का बेड़ा पार लगाने की मुख्य वजह बना।
यह जीत कितनी कशमकश भरी थी, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि संघमित्रा पूरे मंडल में सबसे कम अंतर से जीतने वाली भाजपा की उम्मीदवार थीं। अब उनका विकल्प मौर्य बिरादरी में ही ढूंढा जा रहा है लेकिन पार्टी को हर हालत में यह देखना पड़ेगा कि संघमित्रा का टिकट कटने के बाद स्वामी प्रसाद की नाराजगी बदायूं के मौर्य वोटरों के रुख में कोई बदलाव तो नहीं करेगी। आंवला और शाहजहांपुर में भाजपा प्रत्याशी उतार चुकी है।
पीलीभीत में जातिगत समीकरणों पर भी भारी मेनका और वरुण
पीलीभीत संसदीय सीट का पिछले 30 बरसों का इतिहास बताता है कि यहां होने वाली जीत-हार बहुत ज्यादा न जातिगत आधार पर वोटों की मोहताज है, न ही पार्टी की। जातीय समीकरण बिल्कुल भी अनुकूल न होने के बावजूद 1989 में यहां पहला चुनाव जीतने वाली मेनका गांधी यहां 1996 में अपना दूसरा चुनाव ही हारीं, लेकिन इसके बाद 2019 तक कभी वह खुद इस सीट पर काबिज रहीं और कभी उनके बेटे वरुण गांधी।
पीलीभीत में सिख समुदाय के वोटरों की संख्या इतनी नहीं है कि निर्णायक साबित हो सकें लेकिन मेनका और वरुण की जीत पर इसका कभी कोई फर्क नहीं पड़ा। पहले दो चुनाव मेनका गांधी जनता दल के टिकट पर जीती थीं, इसके बाद तीन चुनाव उन्होंने निर्दलीय जीते।
मां-बेटे के भाजपा में आने के बाद 2009 में यहां से वरुण, 2014 में मेनका और 2019 में फिर वरुण जीते। अब वरुण का विकल्प खोजने के लिए पार्टी को जातिगत समीकरणों में दिमाग खपाना पड़ रहा है। नामांकन प्रक्रिया शुरू हुए दो दिन गुजर जाने के बाद भी यहां अभी प्रत्याशी की घोषणा नहीं हुई है।
2019 : मंडल में सबसे ज्यादा वोटों से जीतने वाले प्रत्याशी थे वरुण
वरुण की लोकप्रियता ने 2019 के चुनाव में बरेली मंडल में रिकॉर्ड बनाया था। उन्हें सात लाख चार हजार से ज्यादा वोट मिले थे। यह जीत कितनी बड़ी थी, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सपा-बसपा के संयुक्त प्रतिद्वंद्वी प्रत्याशी होने के बावजूद हेमराज वर्मा को उनसे करीब 22 प्रतिशत वोट कम मिले थे।
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