एक गांव ऐसा भी : रसगुल्लों की आमदनी से जलते हैं चूल्हे, हर रिश्ते में घुली है इसकी मिठास-देखें-VIDEO

एक गांव ऐसा भी : रसगुल्लों की आमदनी से जलते हैं चूल्हे, हर रिश्ते में घुली है इसकी मिठास-देखें-VIDEO

मिथिलेश त्रिपाठी/ अमृत विचार, प्रयागराज। उत्तर प्रदेश की विविधता में भी एकरुपता देखनी हो तो प्रयागराज के इस गांव पहुंचिए। यहां हर घर का चूल्हा रसगुल्लों की आमदनी से जलता है। इससे भी हैरत वाली बात यह है कि इसकी मिठास यहां के बाशिंदों के आपसी रिश्तों में इस कदर घुली है कि कमाई हो न हो सुबह शाम चूल्हे सबके जलते हैं।

प्रयागराज से रीवा रोड पर चलते हुए करीब 15 किलोमीटर आगे घूरपुर इरादतगंज हाईवे से सटा बिगहिया गांव है। गांव में तकरीबन 200 घर हैं। इस गांव के हर घर में रसगुल्ले की एक दुकान है जो पूरे परिवार के आजीविका का साधन है। परिवार के बुजुर्ग से लेकर महिलाएं तक पूरे दिन रसगुल्ले की दुकानें संभालती हैं। यहां पहुंचते ही हाईवे की रफ्तार थम जाती है। 

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दक्षिण भारत तक फैले हैं इन रसगुल्लों के दीवाने
गाड़ियों की कतार यहां हर वक्त देखने को मिलेगी। लोग खाते भी हैं और ले भी जाते हैं। दो-तीन साल में ही यह गांव रसगुल्लों की मंडी सा बन गया है। स्थित यह है कि अब यहां के रसगुल्लों की मांग दक्षिण भारत तक होने लगी है। यहां के दुकानदार डिमांड पर पब्लिक ट्रांसपोर्ट के जरिए इन रसगुल्लों की सप्लाई चेन्नई, बेंगलूरू, हैदराबाद सहित कई शहरों तक कर रहे हैं।

कोरोना ने सिखाया जुबान पर मिठास घोलने का यह हुनर
रसगुल्लों की दुकान लगाने वाले गांव के निवासी चंद्रमा सिंह बताते हैं कि यहां ज्यादातर लोग मजदूरी पेशा वाले थे। गांव में रहने वाले दिहाड़ी पर काम करके रोजी रोटी चलाते थे। युवा वर्ग सूदूर प्रदेशों में जाकर कामकाज करता था। कोरोना काल बाहर रहने वालों की नौकरियां छूट गई। गांव में भी काम मिलना बंद हुआ तो दोनों वक्त की रोटी का संकट खड़ा हो गया। गांव के कुछ बुजुर्ग मिठाई के कारीगर थे। इन्हीं बुजुर्गों ने रसगुल्ले बनाने का सुझाव दिया। अपने हुनर को गांव के युवाओं को सिखाया और उन्हें खुद की दुकान खोलने के लिए प्रोत्साहित किया। यही से शुरु हुआ रसगुल्लों का सफर दो-तीन सालों में काफी आगे निकल गया।

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जिसकी आमदनी नहीं होती गांव वालें उठाते हैं उसका खर्च
चंद्रमा सिंह के मुताबिक अब यहां करीब हर घर में रसगुल्ले की दुकान हो गई है। लेकिन किसी के बीच प्रतिस्पर्धा नही बल्कि सहयोग की भावना से हर कोई अपनी दुकानदारी करता है। उनका कहना है कि कभी-कभी किसी दुकान पर ग्राहक नहीं पहुंचते तो उसकी आमदनी नहीं हो पाती है। ऐसे हालात में बाकी दुकानदार मिलकर उसका उस दिन का खर्च उठाते हैं। गांव वालों ने ठान रखा है कि जिसकी कमाई नहीं होगी उसका भी चूल्हा बुझने नहीं पाएगा।

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