अपराध की जांच पूरी होने से पहले आरोप-पत्र दाखिल करना अनुच्छेद 21 के खिलाफ: दिल्ली हाईकोर्ट

नई दिल्ली। दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि किसी आरोपी के स्वत: (डिफॉल्ट) जमानत के अधिकार का उल्लंघन करने के लिए जांच के किसी एक पहलू को चुनते हुए एक एजेंसी का अधूरा आरोप-पत्र दाखिल करना संविधान के अनुच्छेद 21 के खिलाफ है। कथित भ्रष्टाचार के एक मामले में केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) द्वारा गिरफ्तार किए गए एक आरोपी को स्वत: जमानत देते समय अदालत ने यह बात कही।
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अदालत ने कहा कि एजेंसी ने भ्रष्टाचार निवारण (पीसी) अधिनियम के तहत उन अपराधों की जांच पूरी न होने पर भी आरोप-पत्र दाखिल किया, जिसके लिए उसे (आरोपी को) गिरफ्तार किया गया था। न्यायमूर्ति अमित शर्मा ने 18 मई को पारित किए एक आदेश में कहा कि जिन अपराधों के संबंध में एक अभियुक्त को गिरफ्तार किया गया है, उसकी जांच आरोप-पत्र दाखिल करने के समय पूरी होनी चाहिए।
एक पूरक आरोप-पत्र की अनुमति तभी दी जा सकती है जब कुछ पहलुओं की जांच मुख्य आरोप-पत्र में पूरी हो चुकी हो, लेकिन फिर भी उन पर गौर किए जाने की जरूरत हो। वर्तमान मामले में प्राथमिकी भारतीय दंड संहिता और पीसी अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों के तहत दर्ज की गई थी। अ
दालत ने कहा, ‘‘जैसा कि उच्चतम न्यायालय ने कहा है, सीबीआई को जांच के केवल एक पहलू पर गौर करने देने की अनुमति देना और उसी के संबंध में एक अधूरा आरोप-पत्र दाखिल करना तथा परिणामस्वरूप, आवेदक के स्वत: जमानत के अधिकार का उल्लंघन करना संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन व व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) के खिलाफ है।’’ अदालत ने फैसला सुनाते हुए आरोपी को दो लाख रुपये के निजी मुचलके पर जमानत दे दी।
जमानत की मांग करने वाले अविनाश जैन की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता विकास पाहवा ने दलील दी कि सीबीआई ने इस मामले में याचिकाकर्ता के स्वत: जमानत पाने के अधिकार का उल्लंघन करने के लिए एक अधूरा आरोप-पत्र दाखिल किया। अभियोजन पक्ष ने जमानत याचिका का विरोध किया और दलील दी कि आरोप-पत्र निचली अदालत द्वारा संज्ञान लेने के लिए पर्याप्त है तो आरोप-पत्र को अधूरा नहीं कहा जा सकता है।
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