"कात्यायन अभ्रांत": केंब्रिज के शोध को दी चुनौती सरला बिरला यूनिवर्सिटी के शोध छात्र ने
रांची। केंब्रिज यूनिवर्सिटी से 15 दिसंबर को ऋषि अतुल राजपोपट के पाणिनीय व्याकरण पर किए गए शोध पत्र पर भारत के विद्वज्जन तीव्र भाषा में निंदा और विरोध कर रहें हैं। श्रीमती पुष्पा दीक्षित, पंडित कृष्णकांत पांडेय प्रमुख विद्वान सोशल मीडिया पर अपना शास्त्रीय तर्क प्रस्तुत करके इस शोध का खंडन कर रहें हैं। अब इस शृंखला में एक और नाम जुड़ गया है रांची के सरला बिरला यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता कौस्तभ सान्याल का।
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एसोसिएट प्रोफेसर डा. पार्थ पाल के अधीन शोधरत छात्र कौस्तभ सान्याल ने केंब्रिज के शोध को चुनौती भी दी है। कौस्तभ कंप्यूटर साइंस एंड इंजीनियरिंग शाखा में संस्कृत भाषा के ऊपर अपना शोधकार्य कर रहें हैं। पारंपरिक रूप से संस्कृत व्याकरण के अध्येता कौस्तभ, अपने कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के सहायता से व्याकरण परंपरा की लुप्त शाखा ऐंद्र व्याकरण के पुनरुद्धार का प्रयास कर रहें हैं।
इस दौरान केंब्रिज यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता ऋषि अतुल राजपोपट का शोधप्रबंध और उसमें किए हुए दावे, जैसे महर्षि कात्यायन पाणिनी को गलत समझे हैं, प्रकाशित हुआ। कौस्तभ ने अपने शोध कार्य से शास्त्रीय दृष्टिकोण और कंप्यूटर प्रोग्रामिंग के माध्यम से दावा किया है कि कात्यायन महर्षि अभ्रांत हैं। कौस्तभ का दावा है कि पाणिनी के विप्रतिषेध संक्रांत सूत्र के "परम्" शब्द को ऋषि ने अपने शोध में प्रत्ययवाची और इष्टवाची बताया हैं।
महर्षि कात्यायन ने अपने वार्तिक में उसे उत्सर्ग रूप से बाद में आने वाला सूत्र और महर्षि पंतजलि ने अपवाद रूप से इष्ट वाची और प्रत्यय वाची कहा है। परंतु ऋषि जी के शोध को उत्सर्ग मानने से शब्द श्रृंखला में आई त्रुटियां कौस्तभ के प्रोग्राम में देखने को मिलता है। इस दृष्टि में अनेक लौकिक और वैदिक शब्दों में विकृति आना अनिवार्य है।
पुनः पाणिनीय व्याकरण, पाणिनी, कात्यायन और पतंजलि के समावेश से त्रि मुनि व्याकरण के नाम से भी प्रसिद्ध है। कौस्तभ ने अपने शोध के जरिये कात्यायन महर्षि को अभ्रांतता सिद्ध करने के साथ साथ भारतीय शास्त्रीय सिद्धांतों की अभ्रांतता को स्पष्ट करने का प्रयास किया है।
सरला बिरला विश्विद्यालय की डीन डॉ नीलिमा पाठक ने कहा है कि कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के शोधच्छात्र ऋषि अतुल राज पोपट का पाणिनीय व्याकरण पर शोध गलत और विचारणीय है। पोपट की दृष्टि से देखने पर मात्र 25% शब्दों की सिद्धि ही संभव है। अतः उनका विचार अग्रहणीय है। सरला बिरला विश्वविद्यालय में शोधरत कौस्तभ सान्याल ने जो खंडन किया है उससे मैं सहमत हूं।
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