सुप्नीम कोर्ट ने भूमि अधिग्रहण मामले को निपटाने के अदालत के तरीके को बताया अनुचित
नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में बारुदी सुरंग विस्फोट के कारण अपना पैर गंवाने वाले भारतीय थल सेना के एक पूर्व सिपाही की विधवा को भूमि का कब्जा देने संबंधी मामले से निपटने के राजस्थान उच्च न्यायालय के तरीके को ‘‘पूरी तरह से अनुचित’’ करार दिया है। शीर्ष अदालत ने कहा …
नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में बारुदी सुरंग विस्फोट के कारण अपना पैर गंवाने वाले भारतीय थल सेना के एक पूर्व सिपाही की विधवा को भूमि का कब्जा देने संबंधी मामले से निपटने के राजस्थान उच्च न्यायालय के तरीके को ‘‘पूरी तरह से अनुचित’’ करार दिया है। शीर्ष अदालत ने कहा कि उच्च न्यायालय ने भूमि पर कब्जे का आदेश देकर ‘‘नियमों से परे जाकर’’ काम किया। उसने कहा कि पूर्व सैन्यकर्मी की पत्नी को आवंटन पत्र जारी करने की प्रक्रिया कभी आगे नहीं बढ़ाई गई।
सैन्यकर्मी का 1998 में निधन हो गया था। न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता और न्यायमूर्ति विक्रम नाथ की पीठ ने इस मामले में उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश को खारिज कर दिया। पीठ ने मंगलवार को दिए अपने आदेश में कहा कि दिव्यांग पूर्व सैन्यकर्मी की मदद करने की आड़ में उच्च न्यायालय ने जिस तरह इस मामले का निपटारा किया, वह पूरी तरह से अनुचित है। सेना में सिपाही के रूप में सेवाएं दे रहे व्यक्ति ने बारुदी सुरंग विस्फोट में अपना दाहिना पैर गंवा दिया था और अयोग्य होने के कारण उनकी सेवा समाप्त कर दी गई थी।
राज्य ने दिव्यांग पूर्व सैनिकों और मृत रक्षा कर्मियों के आश्रितों (भूमि आवंटन) के लिए राजस्थान विशेष सहायता नियम, 1963 बनाया था। शीर्ष अदालत ने कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि व्यक्ति ने युद्ध में दिव्यांग हुए वर्ग में भूमि आवंटित किए जाने के लिए आवेदन किया था और राज्य के राजस्व विभाग के सैनिक कल्याण प्रभाग ने मार्च 1971 में उदयपुर के जिलाधिकारी को पत्र भेजा था, जिसमें कहा गया था कि रोहिखेड़ा गांव में 25 बीघा जमीन आवंटित करने का फैसला किया गया है।
न्यायालय ने कहा कि यह पत्र अंतरविभागीय संवाद था और इसे दिव्यांग सैन्यकर्मी को नहीं भेजा गया था तथा इस पत्र के बाद व्यक्ति या उसकी पत्नी को भूमि आवंटन का कोई पत्र जारी किए जाने का रिकॉर्ड नहीं है। पूर्व सैन्यकर्मी की पत्नी ने अपनी रिट याचिका में कहा था कि मार्च 1971 में आवंटित भूमि का उसके पति या उसे कब्जा नहीं दिया गया।
उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश ने कहा था कि याचिकाकर्ता को जिस वैकल्पिक भूमि की पेशकश की गई, वह दूरस्थ क्षेत्र पर स्थित है और यह खेती योग्य नहीं है तथा इसलिए मूल रूप से आवंटित भूमि का कब्जा देने के लिए निर्देश जारी किया गया था। अदालत के इस आदेश के बाद उन लोगों को उक्त भूमि से हटाने की कोशिश की गई, जो कथित रूप से 60 से अधिक साल से उस पर खेती कर रह थे।
इन लोगों ने अदालत के आदेश को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय ने रिट याचिकाकर्ता के पक्ष में भूमि पर कब्जे का आदेश देकर नियम से परे जाकर काम किया। इस भूमि के लिए आवंटन पत्र कभी जारी नहीं किया था। इस मामले में उच्च न्यायालय का रवैया अत्यधित दुर्भाग्यपूर्ण है।
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