अमर्यादित आचरण

संसद का मानसून सत्र खास रहने वाला हैं। सत्र 18 जुलाई को आरंभ होकर 12 अगस्त तक चलेगा। इसमें कुल 18 बैठकें होंगी। 18 जुलाई को राष्ट्रपति चुनाव के लिए मतदान होना है। दूसरी ओर उपराष्ट्रपति का चुनाव 6 अगस्त को होगा। महत्वपूर्ण बात है कि संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही के दौरान सदस्य …
संसद का मानसून सत्र खास रहने वाला हैं। सत्र 18 जुलाई को आरंभ होकर 12 अगस्त तक चलेगा। इसमें कुल 18 बैठकें होंगी। 18 जुलाई को राष्ट्रपति चुनाव के लिए मतदान होना है। दूसरी ओर उपराष्ट्रपति का चुनाव 6 अगस्त को होगा। महत्वपूर्ण बात है कि संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही के दौरान सदस्य अब चर्चा में हिस्सा लेते हुए जुमलाजीवी, बाल बुद्धि सांसद, शकुनी, जयचंद, लॉलीपॉप, चाण्डाल चौकड़ी, गुल खिलाए, पिठ्ठू जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं कर सकेंगे।
ऐसे शब्दों के प्रयोग को अमर्यादित आचरण माना जाएगा। लोकसभा सचिवालय ने ‘असंसदीय शब्द 2021’ के तहत ऐसे शब्दों एवं वाक्यों का नया संकलन तैयार किया है जिन्हें ‘असंसदीय अभिव्यक्ति’ की श्रेणी में रखा गया है। मानसून सत्र से ठीक पहले सदस्यों के उपयोग के लिए जारी किए गए इस संकलन में ऐसे शब्द या वाक्यों को शामिल किया गया है जिन्हें लोकसभा, राज्यसभा और राज्यों के विधानमंडलों में वर्ष 2021 में असंसदीय घोषित किया गया था।
गौरतलब है कि संसद के सदस्य कई बार सदन में ऐसे शब्दों, वाक्यों या अभिव्यक्ति का इस्तेमाल कर जाते हैं जिन्हें बाद में सभापति या अध्यक्ष के आदेश से रिकॉर्ड या कार्यवाही से बाहर निकाल दिया जाता है। लेकिन यह आधुनिकतम प्रौद्योगिकी का दौर है। संसदीय कार्यवाही का सीधा प्रसारण लोकसभा और राज्यसभा टीवी चैनलों के जरिए किया जाता है। नतीजतन ऐसे घोर आपत्तिजनक शब्द आम आदमी तक पहुंच ही जाते हैं।
भारत एक संसदीय लोकतंत्र है, लेकिन हकीकत यह है कि संसद की गरिमा और महत्ता में लगातार कमी आती महसूस की जाती रही है और इस स्थिति के लिए सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ही दोषी हैं। सदनों में बदजुबानी, शोरगुल, हंगामा और कार्यवाही को ठप करना आम बात हो चली है। गत वर्ष सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एमवी रमना ने गिरती बहस पर चिंता जताते हुए कहा था कि संसद में गुणवत्ता वाली बहस की कमी, दुखदाई स्थिति है।
दरअसल हम भाषा को संसदीय, सभ्य और शालीन करार देते रहे हैं, क्योंकि संसद की भाषा को श्रेष्ठ और मर्यादित माना जाता था। 1990 के दशक के बाद यह धारणा लगातार खंडित होती रही, क्योंकि हमारी विधायिका और कार्यपालिका की भाषा विकृत होती गई। कमोबेश वह असंसदीय, अमर्यादित और अश्लील हो गई। चूंकि हमारे राजनेता, सांसद और विधायक, मंत्री आदि देश की जनता के प्रतिनिधि होते हैं और वे ही सदन में जनता के आधार पर विमर्श करते हैं। उनके भाषायी आचरण का विश्लेषण किया जा सकता है। आखिर यह प्रवृत्ति क्यों है? और इसके मायने क्या हैं?