गर्दिश-ए-सागर-ए-ख़्याल हैं हम

गर्दिश-ए-सागर-ए-ख़्याल हैं हम

मध्यकालीन भारत के स्थापत्य के कुछ एक बेहतरीन नमूनों में दिल्ली के मेहरौली की जमाली-कमाली की मस्ज़िद और उस मस्जिद से लगे जमाली और कमाली के मक़बरे भी हैं। जमाली के नाम से प्रसिद्द हज़रत शेख हमीद बिन फजलुल्लाह उर्फ़ जमाल खान मध्यकालीन भारत के एक प्रसिद्द कवि और सूफी संत रहे थे। वे सिकंदर …

मध्यकालीन भारत के स्थापत्य के कुछ एक बेहतरीन नमूनों में दिल्ली के मेहरौली की जमाली-कमाली की मस्ज़िद और उस मस्जिद से लगे जमाली और कमाली के मक़बरे भी हैं। जमाली के नाम से प्रसिद्द हज़रत शेख हमीद बिन फजलुल्लाह उर्फ़ जमाल खान मध्यकालीन भारत के एक प्रसिद्द कवि और सूफी संत रहे थे। वे सिकंदर लोदी के शासनकाल में भारत आए और यहीं बस गए। लोदी उनकी कविताओं के ऐसे क़ायल हुए कि उन्हें अपना दरबारी कवि बना दिया। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि ‘गुरुग्रंथ साहिब’ में बाबा फ़रीद के नाम से लिखी गई कवितायें वस्तुतः सूफी संत जमाल ने लिखी थी।

उस दौर में जमाली साहब की लोकप्रियता ऐसी थी कि लोदियों के बाद मुग़ल सम्राट बाबर और हुमायूं के दरबारों में भी उनकी जगह और इज्ज़त सुरक्षित रही। हुमायूं ने उनकी मौत के बाद उनका मक़बरा बनवाया था। उनके बगल में किसी कमाली का भी मक़बरा है। कमाली के बारे में प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। कमाली को कोई उनका भाई कहता है, कोई भतीजा, कोई शागिर्द और कोई उनकी बीवी।

कहते हैं कि अपने दौर में इस परिसर की लोकप्रियता क़ुतुब मीनार से भी ज्यादा हुआ करती थी, लेकिन आज यहां एक अजीब-सा सन्नाटा पसरा मिलता है। बेहिसाब अतिक्रमण की वजह से इसमें सरकार को ताला लगाना पड़ा है। कुछ लोगों द्वारा एक अरसे से इस इमारत के भूतिया होने की अफवाहें भी फैलाई जाती रही हैं। मक़बरों में जिन्नों की महफ़िलें लगने की चर्चाओं के कारण लोग अब यहां कम ही आया करते हैं।

मैंने कई बार इस रहस्यमयी मस्ज़िद, मक़बरों और आसपास के सुनसान पार्कों की खाक छानी है। दिन में भी और रात में भी। इसके रखवालों से मस्ज़िद, मक़बरों का ताला खुलवाकर यहां के सन्नाटे को निकट से महसूस भी किया है। जिन्न तो मुझे कहीं नहीं मिले, अलबत्ता इन स्मारकों की गहन शांति, सुकून और जमाली के मकबरे पर दर्ज़ कुछ पंक्तियों ने मन ज़रूर मोह लिया। उनके मक़बरे पर

दर्ज़ दो शेर देखिए – कब्र में आ के नींद आई है /ना उठाये खुदा करे कोई। या यह शेर-रंग ही रंग,खुशबू ही खुशबू / गर्दिश-ए-सागर-ए-खयाल हैं हम। संत कवि जमाली का लिखा साहित्य अब उपलब्ध नहीं है या शायद कहीं छिपा हुआ है। इन्हें तलाश करने की कभी गंभीर कोशिश भी नहीं हुई। अगर उन्हें प्रकाश में लाया जा सके तो देश में सूफीवाद के विकास की एक महत्वपूर्ण कड़ी तो सामने आएगी ही, हमारा साहित्य कुछ और भी समृद्ध होगा।

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