निराला ने तुलसीदास को अपनी काव्यात्मक भूमि पर उतारा है जो श्लाध्य है…
‘तुलसीदास’ में गोसाई जी के चरित्र का मौलिक रूप हमारे सामने आता है। मध्यकालीन इतिहास से ज्ञात होता है कि मुसलमानों की शक्ति अटूट और अपार थी, उस महान शक्ति से लोहा लेने के लिए राणा प्रताप जैसे महान त्यागी, देशभक्त और योद्धा भी विफल रहे तब कर्तव्यच्युत, स्पर्धागत उद्धत क्षत्रिय और चाटुकार ब्राह्मण उनके …
‘तुलसीदास’ में गोसाई जी के चरित्र का मौलिक रूप हमारे सामने आता है। मध्यकालीन इतिहास से ज्ञात होता है कि मुसलमानों की शक्ति अटूट और अपार थी, उस महान शक्ति से लोहा लेने के लिए राणा प्रताप जैसे महान त्यागी, देशभक्त और योद्धा भी विफल रहे तब कर्तव्यच्युत, स्पर्धागत उद्धत क्षत्रिय और चाटुकार ब्राह्मण उनके खिलाफ क्या कर सकते थे। ऐसे संकट के समय बल से नहीं बुद्धि से लोहा लिया जा सकता था।
बिखरे हुए चेतनकणों को ‘ज्योतिपिंड’ के रूप में संगठित करने का विलक्षण कार्य बुद्धिजीवियों का ही है। संस्कृति के ऐसे महान संकट के समय तुलसीदास का अवतरण होता है । तुलसी भारतीय संस्कृति के दैन्य पराजय का मूल कारण यहाँ भारतीय जनों के ऐहिक सुखों की साधना को मानते हैं।
इसलिए वे भौतिक सुखों की आसक्ति से मुक्त होने का प्रयत्न करते हैं किन्तु इस प्रयास में रत्नावली का सौंदर्य बाधक है । प्रथम प्रयास में वे संस्कारों के जाग उठने पर भी मोहासक्ति से ऊपर नहीं उठ पाते , इसलिए प्रकृति रूपी अहिल्या का उद्धार नहीं कर पाते और प्रिया ही उन्हें काम्य हो जाती हैं।
निराला स्त्रियों के प्रति उच्च विचार रखते थे , यहाँ भी वे उसी पवित्रता को मूल रूप में प्रस्तुत करते हैं । रत्ला द्वारा भर्त्सना यहाँ अत्यन्त संयत भाषा में है , यहाँ इससे उनकी काम वासना ही नष्ट नहीं होती बल्कि संस्कार भी पूर्णतया जाग जाते हैं । शारदा रूपी प्रिया की दृष्टि से बंधते ही भारतीय संस्कृति के सत्य स्वरूप का दर्शन होते ही तुलसी निर्द्वन्द्व हो उठते हैं । आनंद से भरकर उनकी वाणी धनीज्योति के रूप में फूट पड़ती है।
स्पष्ट है तुलसी के चरित्र में ‘ जीव ‘ का भी एक इतिहास है , जो सुख में फंसता है और फिर मुक्त होता है । परन्तु इस मुक्ति में स्वयं के कल्याण की भावना नहीं है बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति के उद्धार की कामना है । यहाँ तुलसी भौतिक सुखों का परित्याग करते हैं , देश – समाज और सारे मानव जाति के लिए । यही उनके चरित्र की विशेषता है । एक और बात दृष्टव्य है , वह यह कि यहाँ तुलसी भौतिक सुखों का ही परित्याग करते हैं , रत्नावली का नहीं , वे तो बहिर्गमन करते हैं , रत्ना की उसी दिव्य मूर्ति को हृदय में धारण कर।
अस्तु रत्ना के प्रति उनका प्रेम आयंत हैं , किन्तु इससे भी आगे बढ़कर , वैयक्तिक सीमा लांघकर वे जाति , राष्ट्र और विश्व कल्याण की चेतना से सम्पन्न होकर कर्तव्य के प्रति कृत संकल्प है । स्पष्ट है कि उनका वैराग्य आसक्ति से है । निष्काम कर्म से नहीं । इस आख्यानक प्रगीत में जितना भव्य चित्रण तुलसीदास का है उससे भी अधिक आकर्षक चरित्र है रलावली का । रत्नावली , प्रेम , शक्ति और ज्ञान की त्रिवेणी है।
उसका चरित्र भारतीय नारीत्व की गरिमा से ओप्रप्रोत निराला की लेखनी में ढला एक अविस्मणीय चरित्र है । १० वह प्रेरणा की अजम्न स्त्रोतस्विनी है । रत्नावली यदि रास्ते में नदी की भांति बाधक हो सकती है । यदि वह अपने कमल दलों में क्षण भर सुख से बैठे हुए भ्रमण को बंद कर सकती है तो अपनी सुगंधि से भ्रमर की हृदय कलिका को खोलकर प्रकाश से भी भर सकती है।
वह पुरुष के मोह जनित दुर्बलता को ज्ञान में परिणत कर देशकाल को संकट से बचा भी सकती है । इस रचना में रत्नावली का दर्शन नभ तल में चमकने वाली तारिका के रूप में होता है। फिर प्रकृति के रूप में होता है। पश्चात् प्रकृति के अनुरूप सौंदर्य के रूप में वह विस्तरित होकर वन पर्वत नदी नाले , लता – सुमन आदि में प्रतिबिम्बित हो उठती है।
उसकी उच्छ्वासों से दिशाएँ सुगंध से भर उठती हैं । उसकी आंखों के ‘ कोए ‘ इंदीवर के समान विमल होते हुए भी मुख मंजू सोम में कलंक के समान है । उसकी नीली अलकें मारुत – प्रेरित गिरिशृंगों में ठहरे हुए घने नीले बादलों के समान क्रांतिमान हैं । उसकी धनी ज्योति विद्युत से भी अधिक चंचल व सुन्दर है । वह मनमोहिनी है। उसकी शोभा अक्षय पुष्प के समान है।
शारीरिक सौंदर्य से ही नहीं , मानसिक सौंदर्य से भी रत्नावली सम्पन्न है । वह सत्य यष्टि है । उसका अनुराग उषारूपी फाग में आग के समान है । इतना होते हुए भी यह त्याग और करुणा की मूर्ति है । कुंकुम – शोभा रत्नावली पति की अत्यंत प्रिया होती हुई भी भाई , भाभी , मां – बाप के स्नेह की सरिता है । यह मर्यादा में सीता के समान और ज्ञान में गीता के समान पवित्र है । कामवासना के लिए अग्नि शिखा के समान है। लोक व्यवहार से च्युत तुलसी के ससुराल आगमन पर वह चंचल हो उठती है।-
धिक , आए तुम यों अनाहून
धो दिया श्रेष्ठ कुल धर्म धूत
राम के नहीं काम के सूत कहलाए
हो विके जहाँ तुम बिना दाम
वह नहीं और कुछ हाड़ चाम
कैसी शिक्षा , कैसे विराम पर आए
इस गंभीर घोष से वह पति को सन्मार्ग में लाती है । अपनी दिव्य दृष्टि से पति के पूर्व संस्कारों को जगाती है , पति को ज्ञान और कर्म क्षेत्र की ओर उन्मुख करती है । पति के वैराग्य के संकल्प से रत्ला जड़ीभूत हो जाती है। उसकी आंखें छलछला उठती है , मौन रागिनी फूट पड़ती है। वैराग्य धारण के बाद भी रत्ना तुलसी के हृदय में ज्योति – सी छिपी रहती है।
प्रेम , त्याग , ज्ञान , भक्ति और सौंदर्य की इस मूर्ति को विधाता ने जैसे भारत के उद्धार के लिए ही गढ़ा था । वास्तव में रत्ना यहाँ महान है । महाकवि निराला ने उसके जीवन के अछूते प्रसंगों का चित्रण कर साहित्य का बहुत कल्याण किया है । रत्ना , सूर्य की ज्ञानदात्री किरण है जिसकी दीप्ति से सरस्वती और स्वयं लक्ष्मी आलोकिक होती है , वास्तव में वह प्रकृति स्वरूपा है ।
यह श्रीपावन , गृहिणी उदार
गिरिवर सरोज , सरि पयोधार
कर वन तरु , फैला पल निहारती देती
सब जीवों पर है एक दृष्टि
तृण – तृण पर उसकी सुधा वृष्टि
प्रेयसी , बदलती वसन सृष्टि नव लेती
यह पावन गृहिणी का एक उदात्त चित्र है रत्नावली का या मनोहरा का , दोनों महाकवियों में कहां कितना अन्तर है ? दोनों की प्रेरणासोत तो नारी ही है ।११ और प्रेरणा स्थल भी ससुराल। ‘ तुलसीदास ‘ देशकाल के शर से बिंधे हुए महाकवि निराला की आत्माभिव्यक्ति हैं । जिस प्रकार पत्नी के माध्यम से तुलसीदास को अनुपम ज्ञान मिला था उसी प्रकार निराला भी अपने लिए मानते हैं। तुलसीदास के पूर्व भी अपनी सांस्कृतिक चेतना को निराला ने अनेकों बार बदला राग , यमुना के प्रति शिवाजी का पत्र आदि लम्बी कविताओं में अभिव्यक्त किया था। यहाँ उन्हीं विखरे हुए रत्नकणों को संगठित रूप में प्रस्तुत किया गया है।
विवेकानन्द राष्ट्र की मुक्ति के लिए राष्ट्रीय एकता निम्न वर्ग और नारियों का उद्घार चाहते थे। राष्ट्र के उत्थान के लिए वे ज्ञान को आवश्यक मानते थे । निराला विवेकानन्द के जीवन दर्शन से अत्यधिक प्रभावित थे और इसी दर्शन के अनुरूप उन्होंने इस आख्यानक प्रगीत में दलित वर्ग के उत्थान की कामना और नारी की प्रेरणाशक्ति को प्रकट किया है। उनकी सम्पूर्ण चेतना राष्ट्र को अर्पित थी । निराला और गोस्वामी जी की प्रकृति में अद्भुत समानता है , दोनों प्रकृति प्रेमी और दर्शन के क्षेत्र में अद्वैतवादी हैं।
निराला और तुलसीदास के शारीरिक सौष्ठव में भी विद्वानों के चित्रणों के अनुसार पर्याप्त समता दिखाई देती है। डॉ . बच्चनसिंह के शब्दों में निराला जी का शारीरिक सौष्ठव इस प्रकार था ‘ पुष्ठ लम्बा शरीर , गठी हुई मांस पेशियाँ , उन्नत ललाट विस्तृत वक्ष , गौरवर्ण , सिन्धुतट वाले आर्यों के जीवन प्रतीक आज के ठिगने कद , दुबले पतले विकृत मानव शरीर यष्टि धारण करने वाले व्यक्तियों के मध्य में आर्यों की दैहिक परम्परा के प्रतिनिधि प्रतीत होते हैं। १२ कुछ इसी तरह का व्यक्तित्व मानस के हंस में नागर जी ने ‘ तुलसी ‘ का चित्रित किया है।
आजानुबाहु , चमकते सीने , पीन सी देह , लम्बी सुतवा नाक , उठी दाढ़ी , पतले होंठ , सिर और चेहरे के बाल घुटे हुए । लगता था मनुष्यों के समाज में कोई देव जाति का पुरुष आ गया है । यह तुलसी के वृद्ध शरीर का वर्णन है , लगता है । नागर जी ने यहाँ निराला जी का ही व्यक्तित्व प्रस्तुत किया है। डॉ . रामविलास शर्मा के शब्दों में कैसे थे तुलसीदास ?
रामायण , विनय पत्रिका में अपने बारे में कहीं कुछ विशेष नहीं लिया , पर आदर्श कवि की मूर्ति वैसी ही रही होगी , जैसे युवक निराला की थी … वास्तव में ‘ तुलसीदास ‘ महाकवि गोस्वामी जी के माध्यम से कवि निराला के स्वयं की चिन्ता है इसलिए यह कविता के रूप में लिखा गया आत्मचरित ही है। वर्ना निराला ढोल गंवार क्षुद्र पशुनारी के लिए ताड़न के अधिकारी , लिखने वाले तुलसी के हृदय में चलते फिरते पर निःसहाय शुद्रगण शुद्र जीवन संबल पुर – पुर में , की भावना व्यंजित नहीं करते । यहाँ निराला ने तुलसीदास को अपनी काव्यात्मक भूमि पर उतारा है जो श्लाध्य है। ‘ कविः प्रजापतिः ‘ को पूर्णतया यहाँ चरितार्थ किया गया है। क्रमश: –
- डाॅ. बलदेव
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