बड़ा फैसला

बड़ा फैसला

पिछले कुछ वर्षों के दौरान बच्चों से जुड़ी अश्लील फिल्मों में बढ़ोतरी दर्ज की गई है। पूरे इंटरनेट का 37 फीसदी पोर्नोग्राफी है और इसके बड़े हिस्से में बच्चों को शामिल किया गया है। बाल पोर्नोग्राफी से निपटने के लिए राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग कई नियामक दिशानिर्देशों की अनुशंसा कर चुका है।

गौरतलब है कि सोशल मीडिया पर पोर्नोग्राफी और बच्चों एवं समाज पर इसके प्रभाव जैसे चिंताजनक मुद्दे पर अध्ययन के लिए गठित राज्यसभा की एडहॉक कमेटी ने 25 जनवरी, 2020 को सौंपी अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया था कि बाल पोर्नोग्राफी की परिभाषा को व्यापक बनाया जाए ताकि उसमें लिखित सामग्री और ऑडियो रिकॉर्डिंग भी शामिल की जा सके जोकि नाबालिग के साथ यौन गतिविधि का समर्थन करती हो या उसे प्रदर्शित करती हो। कानून में ‘यौन स्पष्टता’ को भी परिभाषित किया जाए।

कमेटी ने सुझाव दिया था कि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो को बाल पोर्नोग्राफी के सभी मामलों को अनिवार्य रूप से रिकॉर्ड और रिपोर्ट करना चाहिए। इस संबंध में सोमवार को उच्चतम न्यायालय ने एक बड़े फैसले में कहा कि चाइल्ड पोर्नोग्राफी को देखना और उसे डाउनलोड करना अपराध है। न्यायालय का मानना है कि पॉक्सो कानून में बच्चों के साथ यौन शोषण और दुर्व्यवहार के लिए ‘बाल पोर्नोग्राफी’ की जगह ‘बाल यौन शोषण और दुर्व्यवहार सामग्री’ (सीएसईएएम) लिखना सही होगा। क्योंकि बाल पोर्नोग्राफ़ी शब्द का प्रयोग अपराध को गौण बना सकता है।

पोर्नोग्राफ़ी को अक्सर वयस्कों के बीच सहमति से किया गया कार्य माना जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए यह फैसला सुनाया है। मद्रास उच्च न्यायालय ने एक निर्णय में कहा था कि चाइल्ड पोर्नोग्राफी डाउनलोड करना सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 67 बी के तहत अपराध नहीं माना जा सकता। इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका में कहा गया था कि मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले से बाल पोर्नोग्राफी की मांग बढ़ेगी, लोग बच्चों को पोर्नोग्राफी में शामिल करने के लिए प्रोत्साहित होंगे।

उच्च न्यायालय के फैसले से तय हो गया है कि चाइल्ड पोर्न डाउनलोड करना और देखना पॉक्सो अपराध की श्रेणी में आता है। इस संबंध में अदालत ने जो निर्देश दिए हैं उनसे संभावित अपराधों को रोकने में मदद मिल सकती है। फिलहाल सरकार अध्यादेश जारी कर सकती है। जरूरी है कि यौन शिक्षा जैसे कार्यक्रमों के संबंध में जनसामान्य के बीच भ्रामक सोच को दूर किया जाना चाहिए और युवाओं को यौन सहमति और यौन शोषण के प्रभाव की स्पष्ट समझ कराई जानी चाहिए।

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