बरेली: मुसलमानों कौन दिखाएगा दिशा?, आजम के बाद अब तौकीर भी जेल के मुहाने पर, दरगाह आला हजरत में भी नहीं कोई चुनावी हलचल

बरेली: मुसलमानों कौन दिखाएगा दिशा?, आजम के बाद अब तौकीर भी जेल के मुहाने पर, दरगाह आला हजरत में भी नहीं कोई चुनावी हलचल

मोनिस खान, बरेली। बरेली मंडल में लोकसभा की पांच सीटों पर मुसलमानों का औसत वोट करीब 30 फीसदी है। इस लोकसभा चुनाव में पहली बार ऐसा है, जब इन वोटरों को दिशा दिखाने के लिए कोई प्रमुख नेता खुले तौर पर उनके बीच नहीं है। सपा के वरिष्ठ नेता आजम खां लंबे समय से जेल में हैं तो आईएमसी प्रमुख तौकीर रजा खां भी चुनाव से ऐन पहले अदालत के शिकंजे में फंस चुके हैं। उम्मीद भी नहीं है कि उन्हें जल्द कुछ ऐसी राहत मिल पाएगी कि वह चुनाव में सक्रिय हो सकें। दरगाह आला हजरत से मुसलमानों को आस है लेकिन वहां भी फिलहाल सन्नाटा छाया हुआ है।

लोकसभा चुनाव- 2024 में मुस्लिम वोटों पर सपा-कांग्रेस गठबंधन का पहला दावा है और दूसरा बसपा का। भाजपा की मंशा मुस्लिम वोटों में बिखराव की हो सकती है और यह भी कि कुछ मुस्लिम वोट उसे भी मिल जाए। मुसलमानों के लिए यह गहरी उलझन में डालने वाली बात है और उनमें इसका असर भी दिखाई दे रहा है। पिछले चुनावों का इतिहास बताता है कि बरेली मंडल में ज्यादातर मुस्लिम वोटरों को हमेशा एक इशारे की जरूरत पड़ती रही है। आजम खां इस मामले में उनके लिए सबसे ज्यादा विश्वस्त साबित होते रहे हैं, कुछ हद तक तौकीर रजा खां के रुख से भी मुसलमान वोटर प्रभावित रहते रहे हैं लेकिन इस बार दोनों नेता मुसलमानों के बीच नहीं हैं।

लोकसभा चुनाव- 2019 के चुनाव में सपा और बसपा गठबंधन में थीं लिहाजा विकल्प चुनने में मुसलमानों को कोई खास दिक्कत नहीं हुई थी। यह अलग बात है कि धार्मिक आधार पर इतना ज्यादा ध्रुवीकरण हुआ कि इसका कोई नतीजा पक्ष में नहीं निकला। बदायूं संसदीय क्षेत्र जहां सर्वाधिक 44 फीसदी मुसलमान वोट हैं, वहां भी गुटबाजी और बिखराव की वजह से सपा छोटे अंतर से हार गई थी। 

बरेली मुसलमानों वोटरों की संख्या 35 फीसदी के करीब है, लेकिन यहां भी 2.40 लाख के बड़े अंतर से सपा प्रत्याशी को हार का सामना करना पड़ा था। आंवला में 27, पीलीभीत में 24 प्रतिशत और शाहजहांपुर में 20 प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम वोटर हैं। इन तीनों क्षेत्रों में भी सपा-बसपा के प्रत्याशी की बड़े अंतर से हार हुई थी।

तौकीर अस्पताल में और आईएमसी में सन्नाटा
बरेली में 2010 में हुए दंगे के केस में उलझने से पहले मौलाना तौकीर रजा खां तीसरा मोर्चा गठित करने की तैयारी में थे, लेकिन अब उनके खेमे में सन्नाटा छाया हुआ है। तीखे बयानों के लिए जाने जाने वाले मौलाना के बारे में कहीं तीर चलाने और कहीं निशाना लगाने जैसी बातें कही जाती रही हैं लेकिन इस बार चुनाव से बड़ी चुनौती उनके सामने खुद को कानून के शिकंजे से बचाने की है।

कई दिनों से वह अस्पताल में भर्ती हैं और उनकी पार्टी में सन्नाटा छाया हुआ है। मौलाना तौकीर की गैरमौजूदगी में आईएमसी के पदाधिकारी कोई भी निर्णय करने की स्थिति में नहीं हैं। आईएमसी के मीडिया प्रभारी मुनीर इदरीसी कहते हैं कि मौलाना के अस्पताल से आने के बाद ही चुनाव की ओर रुख किया जा सकेगा।

ओवैसी की पार्टी ने भी यूपी के चुनाव से बनाई दूरी
असदउद्दीन औवैसी की पार्टी एआईएमआईएम पिछले कुछ चुनावों में बरेली में सक्रिय रही थी लेकिन इस चुनाव से उसने अब तक दूरी बना रखी है। हालांकि चुनाव से पहले एआईएमआईएम ने दावा किया था कि यूपी में वह 20 से ज्यादा प्रत्याशी उतारेगी, लेकिन अब चुनाव नजदीक आने के साथ साफ हो रहा है कि यूपी में उसकी दिलचस्पी नहीं है। पहले चरण के चुनाव के लिए नामांकन प्रक्रिया पूरी हो चुकी है। मु

स्लिम प्रभाव वाले सहारनपुर, कैराना, मुजफ्फरनगर, बिजनौर, नगीना, मुरादाबाद, रामपुर और पीलीभीत से उसने कोई प्रत्याशी नहीं उतारा है। बरेली और आंवला में तीसरे चरण में मतदान है, 12 अप्रैल से नामांकन शुरू हो जाएंगे लेकिन यूपी के विधानसभा चुनाव में ताल ठोकने वाली ओवैसी की पार्टी की कोई तैयारी नहीं है। एआईएमआईएम के जिलाध्यक्ष मुजम्मिल खान के मुताबिक आला कमान से चुनाव लड़ने के बारे में कोई निर्देश नहीं आए हैं, न किसी प्रत्याशी का नाम भेजा गया है। अगर निर्देश मिलेगा तो चुनाव में जुट जाएंगे।

निकाय चुनाव में भी उतरी थी कि एआईएमआईएम
एआईएमआईएम ने 2022 के विधानसभा चुनाव में पहली बार अपने उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन किसी भी सीट पर उसके प्रत्याशी मुख्य लड़ाई तक भी नहीं पहुंच सके। इसके बाद निकाय चुनाव में भी पार्टी उतरी लेकिन एक नगर पंचायत का चेयरमैन जिताने से ज्यादा कोई कमाल नहीं दिखा सकी। माना जा रहा है कि दोनों चुनाव पार्टी के लिए लिटमस टेस्ट के तौर पर थे। मुसलमानों को प्रभावित न कर पाने की वजह से उसने लोकसभा चुनाव से कदम पीछे खींच लिए।

2019 में सपा-बसपा का नहीं था एक भी मुस्लिम प्रत्याशी
पहले निकाय चुनाव और अब लोकसभा चुनाव में जरूर बसपा का मुस्लिम प्रत्याशियों को उतारने पर जोर दिख रहा है लेकिन 2019 के चुनाव में ऐसा नहीं था। धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण का चक्रव्यूह बनाकर भाजपा 2019 के चुनाव में जिस आक्रामक अंदाज में उतरी थी, उसका सामना करने के लिए सपा के साथ बसपा भी मुस्लिम प्रत्याशी को मुकाबले में उतारने की हिम्मत नहीं जुटा पाई थी।

मंडल की पांचों में से एक भी सीट पर इस गठबंधन ने कोई मुस्लिम प्रत्याशी नहीं उतारा था। इस बार बसपा ने मंडल में अब तक तीन उम्मीदवार घोषित किए हैं जिनमें से दो मुस्लिम हैं। बसपा की यह रणनीति सपा के लिए इस चुनाव में चिंता का विषय बनती दिख रही है।

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