आग़ाज़-ए-इश्क़ उम्र का अंजाम हो गया…

आग़ाज़-ए-इश्क़ उम्र का अंजाम हो गया…

आग़ाज़-ए-इश्क़ उम्र का अंजाम हो गया नाकामियों के ग़म में मिरा काम हो गया तुम रोज़-ओ-शब जो दस्त-ब-दस्त-ए-अदू फिरे मैं पाएमाल-ए-गर्दिश-ए-अय्याम हो गया मेरा निशाँ मिटा तो मिटा पर ये रश्क है विर्द-ए-ज़बान-ए-ख़ल्क़ तिरा नाम हो गया दिल चाक चाक नग़्मा-ए-नाक़ूस ने किया सब पारा पारा जामा-ए-एहराम हो गया अब और ढूँडिए कोई जौलाँ-गह-ए-जुनूँ सहरा …

आग़ाज़-ए-इश्क़ उम्र का अंजाम हो गया

नाकामियों के ग़म में मिरा काम हो गया

तुम रोज़-ओ-शब जो दस्त-ब-दस्त-ए-अदू फिरे

मैं पाएमाल-ए-गर्दिश-ए-अय्याम हो गया

मेरा निशाँ मिटा तो मिटा पर ये रश्क है

विर्द-ए-ज़बान-ए-ख़ल्क़ तिरा नाम हो गया

दिल चाक चाक नग़्मा-ए-नाक़ूस ने किया

सब पारा पारा जामा-ए-एहराम हो गया

अब और ढूँडिए कोई जौलाँ-गह-ए-जुनूँ

सहरा ब-क़द्र-ए-वुसअत-यक-गाम हो गया

दिल पेच से न तुर्रा-ए-पुर-ख़म के छुट सका

बाला-रवी से मुर्ग़ तह-ए-दाम हो गया

और अपने हक़ में ता’न-ए-तग़ाफ़ुल ग़ज़ब हुआ

ग़ैरों से मुल्तफ़ित बुत-ए-ख़ुद-काम हो गया

तासीर-ए-जज़्बा क्या हो कि दिल इज़्तिराब में

तस्कीं-पज़ीर बोसा-ब-पैग़ाम हो गया

क्या अब भी मुझ पे फ़र्ज़ नहीं दोस्ती-ए-कुफ़्र

वो ज़िद से मेरी दुश्मन-ए-इस्लाम हो गया

अल्लाह-रे बोसा-ए-लब-ए-मय-गूँ की आरज़ू

मैं ख़ाक हो के दुर्द-ए-तह-ए-जाम हो गया

अब तक भी है नज़र तरफ़-ए-बाम-ए-माह-वश

मैं गरचे आफ़्ताब-ए-लब-ए-बाम हो गया

अब हर्फ़-ए-ना-सज़ा में भी उन को दरेग़ है

क्यूँ मुझ को ज़ौक़-ए-लज्ज़त-ए-दुश्नाम हो गया

*इस्माइल मेरठी*

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