गोरखपुर: ब्रिटिश काल में बना यह मंदिर है आस्था का केन्द्र, 200 वर्षों से मेले का होता है आयोजन

गोरखपुर: ब्रिटिश काल में बना यह मंदिर है आस्था का केन्द्र, 200 वर्षों से मेले का होता है आयोजन

गोरखपुर। जनपद मुख्यालय से 15 किमी. दूर उत्तर दिशा मे भटहट विकास खण्ड के जंगल डुमरी नंबर 2 में स्तिथ बासस्थान बामन्त माता का मंदिर सदीयों पूराना है,जो आकर्षकता का केन्द्र है। यहां दो शताब्दी पूर्व ब्रिटिश शासन काल से ही चैत्र रामनवमी की सप्तमी से काफी बड़े स्तर पर मेले का आयोजन किया जाता …

गोरखपुर। जनपद मुख्यालय से 15 किमी. दूर उत्तर दिशा मे भटहट विकास खण्ड के जंगल डुमरी नंबर 2 में स्तिथ बासस्थान बामन्त माता का मंदिर सदीयों पूराना है,जो आकर्षकता का केन्द्र है। यहां दो शताब्दी पूर्व ब्रिटिश शासन काल से ही चैत्र रामनवमी की सप्तमी से काफी बड़े स्तर पर मेले का आयोजन किया जाता है।

जिसकी तैयारी नवरात्र के प्रथम दिन से प्रारंभ हो जाती है। कोरोना वैश्विक महामारी के कारण पिछले दो वर्षों से यहा मेले का आयोजन नही हो पाया। पड़ोसी देश नेपाल सहित पड़ोसी राज्य बिहार तथा अन्य प्रदेशों से लाखों की संख्या में भक्तगण मनोकामना पूर्ति के लिए शक्ति पीठ बामन्त माता के मंदिर पर पूजन अर्चन करने जाते है।

शक्ति पीठ बामन्त माता की बहुचर्चित चमत्कारी गाथाये स्थानीय लोगों की जुबानी सुनने को मिलती है।जिसमें एक चमत्कार का किवदंती है जो की वर्षो से क्षेत्रीय लोगो मे चर्चा का केंद्र रही है। जो एक चरवाहे की कहानी पर आधारित है। वर्षो पहले स्थानीय निवासी गुनई यादव नामक एक चरवाहे की भैस बास स्थान के पास चिलुआ ताल के जंगलों में खो गई थी।

चरवाहा चारो तरफ अपनी भैसों को खोज कर थक हार कर माता के स्थान पर पहुंचा। उस समय माता का सिर्फ एक पिंडी स्थापित था, लोग जिसकी पूजा अर्चना करते थे। माता से खोये हुए भैस प्राप्ती के लिए प्रार्थना किया और भैस मिलने पर इसे वह माता का चमत्कार समझेगा। ये बातें कहते हुए चिलुआताल में अपनी प्यास बुझाने चला गया। वापस आकर उसने देखा तो उसकी भैसे वापस आ चुकी थी।लेकिन उसको माता के चमत्कार पर विश्वास नही हुआ और अपने भैसों के साथ घर चला गया।

बामन्त माता की परिक्षा लेने पर चरवाहे की चली गई थी जान
दूसरे दिन पुन। वापस आकर मा की परीक्षा लेने की बात कहने लगा। साथी चरवाहों ने बहुत समझाया लेकिन वह नादानी कर बैठा। वर्षो पुरानी अपनी भैस चराने वाली लाठी को पिंडी के पास जमीन में गाड़ कर बोला माता अगर आप मे शक्ति है तो सूखे बास की लाठी में कल तक कोपले और हरे भरे पत्ते निकल आएंगे। अगले दिन चरवाहा माता के पिंडी वाले स्थान पर पहुचा तो सूखे बास की लाठी से बास की कोपले निकल चुकी थी।गुनई चरवाहा मां के इस चमत्कार को सहन नही कर पाया और भयभीत हो कर एक क्षण में दम तोड़ दिया। साथी चरवाहों ने लोगो से इस बात को बताया, तभी से शक्ति पीठ बामन्त के चमत्कार का चर्चा क्षेत्र में आग की तरह फैल गई। उसी क्षण से पिंडी वाले स्थान को बासस्थान के नाम से पुकारा जाने लगा। और माता के पिंड को शक्तिपीठ के रूप में पूजा जाने लगा।

कुछ समय बाद अंग्रेजो के शासन काल मे उक्त जमीने भेलौजी स्टेट के अधीन थी। कुछ समय अंग्रेजो ने उस स्टेट को तोड़कर उक्त जमीनों को सरहरी स्टेट एवं स्वतंत्रनाथ बनर्जी को देखभाल के लिए दे दिया। उक्त दोनों रियासतों के मालिकों ने मुख्य स्थान से मिट्टी लेकर अपने अपने जमीनों में मां का मंदिर बनवा दिया। आज उसी मुख्य स्थान को बास स्थान कहा जाता है।

जहाँ आज भी उस लाठी से निकले बास के बगीचे मौजूद है अब उसे बीच वाला स्थान कहा जाता है जबकि स्वतंत्रनाथ द्वारा बनाये गए स्थान को बड़ा स्थान एवं सरहरी स्टेट द्वारा निर्मीत स्थान को छोटा स्थान कहा जाता है।इन तीनो स्थानों पर विशाल मेला लगता है। जो नवरात्रि के सप्तमी के दिन से एक सप्ताह से भी अधिक चलता है। इस मेले में गुलरिहा थाने की अस्थाई पुलिस चौकी बनाई जाती है जिसमे पुलिस के अलावा एक सेक्शन पीएसी की भी लगाई जाती है।

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