जब तुलसीदास ने अन्धकार से घिरा हुआ भारत को देखा, उन्हें लगा जैसे सूर्य ही राहु से ग्रस्त हो गया हो…

जब तुलसीदास ने अन्धकार से घिरा हुआ भारत को देखा, उन्हें लगा जैसे सूर्य ही राहु से ग्रस्त हो गया हो…

मुसलमानों के आक्रमण से हिन्दू संस्कृति का सूर्य अस्त हो गया है। इस कारण भारतीय जन जीवन भी सांध्यकालीन कमल- सा निस्तेज और प्राणहीन हो गया है। एक-एक कर पंजाब, बिहार, कौशल, बुन्देलखंड, कालिंजर आदि प्रसिद्ध हिन्दू राज्य पराजित हो गये हैं। वीर राजपूत मारे गये और जो शेष बचे हैं वे सूत या बन्दी …

मुसलमानों के आक्रमण से हिन्दू संस्कृति का सूर्य अस्त हो गया है। इस कारण भारतीय जन जीवन भी सांध्यकालीन कमल- सा निस्तेज और प्राणहीन हो गया है। एक-एक कर पंजाब, बिहार, कौशल, बुन्देलखंड, कालिंजर आदि प्रसिद्ध हिन्दू राज्य पराजित हो गये हैं। वीर राजपूत मारे गये और जो शेष बचे हैं वे सूत या बन्दी रूप में जीवन बिता रहे हैं। मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना से इस्लाम की मोहक चन्द्रिका में भारतीय जन अपने दैन्य पूर्ण पराजय को भूलकर कामिनी कुमुद के कर कलित ताल पर नाचने लगे हैं।

किसी को संस्कृति की चिन्ता ही नहीं। सभी निष्क्रिय हो गए हैं। ऐसे ही सांस्कृतिक अधः पतन के समय चेतना केन्द्र , शास्त्र – समधीत , पुष्ट शरीर वाले , निर्भय प्रकाश पुंज तुलसीदास जी का अभ्युदय राजापुर नगर में हुआ, उनके चरित्र की सुगन्धि से सभी लोग मुग्ध हुए।
एक दिन तुलसीदास मित्रों के साथ पर्यटन हेतु चित्रकूट गए और प्रकृति द्वारा उद्बोधित हुए। उन्हें लगा कि चेतना के स्पर्श के अभाव में प्रकृति जड़ होती जा रही है।

दैन्य अवस्था को प्राप्त प्रकृति के माध्यम से उनके समक्ष सम्पूर्ण पराजित भारत खड़ा हो गया। प्रकृति के संदेश से उनका मन उर्ध्वमुखी हो गया। मन आकाश की कई तरंगें पार कर गया। सांसारिक आकर्षण से मुक्त होते ही उन्होंने अन्धकार से घिरा हुआ भारत को देखा , उन्हें लगा जैसे सूर्य ही राहु से ग्रस्त हो गया है। इस दुरावस्था का कारण ऐहिक ऐश्वर्यों से ग्रस्त उच्चवर्ग है। क्षत्रिय उद्धत , घमण्डी और कर्तव्यच्युत तथा ब्राम्हण चाटुकार हो गये हैं। क्षुद्रगण पशुवत जीवन बिता रहे हैं।

इस्लाम संस्कृति का प्रभाव उच्चवर्ग के लोगों पर ज्यादा पड़ रहा है। इस मायावी संस्कृति के प्रसार का प्रमुख कारण भारतीयों के पार्थिव ऐश्वर्य की आसक्ति ही है। उन्होंने देखा इस्लाम संस्कृति के ऊपर भी सत्य स्वरूप भारतीय संस्कृति का सूर्य है जो कि मायावरण में इस समय लुप्त हो गया है। यही संस्कृति का सूर्य है जो मुक्ति का सत्य स्वरूप है और मुक्ति अज्ञान दूर होने के पहले नहीं मिल सकती । तुलसीदास भारत की दुर्दशा से विकल हो  उसे दूर करने को कृत संकल्प हो गए-
करना होगा यह तिमिर पार
देखना सत्य का मिहिर द्वार
तोड़ने को विषम बज्र द्वार
उमड़े भारत का भ्रम अपार हरने को

इस संकल्प के दूसरे क्षण ही बाधा स्वरूप रत्नावली तारिका के रूप में प्रकट हो गई और वे भ्रमर के समान पंखुरियों में बन्द हो गए । फिर तो वही दीनप्रकृति उन्हें स्वर्गीयाभा के लिए रत्ना के रूप में दिखाई देने लगी । उनका उद्धर्वगमित मन अपनी जगह पुनः वापस आ गया और मित्रों के साथ पंचतीर्थ, संदर्शन, कोटितीर्थ , देवांगना हनुमद्धारा, कामदगिरि,जानकी कुंड,स्फटिक शिला , अनुसूयावन , भरत कूप आदि चित्रकूट के रमणीय स्थानों का भ्रमण कर वे अपने गांव लौट आए ।

तुलसीदास रत्नावली के सौंदर्यपान करते न अघाते थे, रत्नावली उनके जीवन में सूत्रधार के समान थी, अपनी प्रियतमा के दिव्य सौंदर्य को वे बाहर- भीतर अखिल चराचर में देखा करते और उसी को मुक्ति का कारण मानते उनका तर्क था-
बन्ध के बिना कह कहाँ प्रगति ?
गति – हीन जीव को कहाँ सुरति
रति-रहित कहाँ सुख ? केवल क्षति , केवल क्षति

रत्नावली की अनेक मनोहारी कल्पनाओं से तुलसीदास का हृदय पटल प्रकाश से भरकर खिलखिला उठता था । जिस प्रकार , एक मिट्टी में अनेक प्रकार के फूल खिलते हैं , उसी प्रकार रत्नावली की कल्पना रूपी हार में वे बंधे हुए खिले रहते थे। रत्नावली करुणा , त्याग और ममता की साक्षात् प्रतिमा थी , एक दिन भाई के साथ पति की अनुपस्थिति में वह मायके चली गई।

बाजार से लौटे हुए तुलसी घर को सूना देख उलटे पांव ससुराल पहुंच गए। भाभियों के व्यंग्य – वाण से रत्ना जल उठी , और रात में पति के समक्ष अग्नि शिखा – सी प्रज्ज्वलित हो उठी – प्रिया के इस नूतन रूप से तुलसीदास सहम गए । काम वासना तत्काल भस्म हो गई , उनके पूर्व संस्कार जाग जाते हैं । रत्नावली उन्हें नील वसना के रूप में दिखाई देती है। रलावली का प्रखर स्वर झंकृत वीणा – सा बज उठा –
धिक , धाये तुम यों अनाहूत
धो दिया श्रेष्ठकुल धर्म धूत
राम के नहीं , काम के सूत कहलाए

तुलसीदास भारतीय रूपा रला की दृष्टि से बंधकार ऊपर उठने लगे। इस उर्ध्वमन में उन्हें चारों ओर अंधकार ही अंधकार दिखाई देने लगा। जिसमें सूर्य – चन्द्रमा नक्षत्र सभी धूसर दिखाई देने लगे। क्षणान्त , वही तरिका फिर उदित हुई और आकाश का अंधकार उसमें विलीन होने लगा। भारतीय रूप में प्रिया के इस दर्शन से उनके द्वन्द्व और बन्धन नष्ट हो गए । उनका हृदय आनन्द से भर उठा । उनके अन्तर की आंखें खुली हुई थीं। जिस कली में वे अब तक बन्द थे वह उन्हीं में खुलने लगी और उसकी सुरभि से सभी दिशाएँ भर गयीं।

जब उन्हें देहात्म बोध हुआ , उस समय उनके हृदय की कली दिव्य गंध से खिलने लगी । सरस्वती की वीणा उनकी वाणी में गुजरित होने लगी। उदास ऋषियों का हदय दूने उत्साह से भर उठा । अंधकार की रात्रि बीतने लगी पूर्वांचल में प्रकाश की किरणें फैलने लगी । जड़ और चेतन का संघर्ष प्रारंभ हो गया।

एक तरफ सरस्वती है और दूसरे तरफ ऐहिक सुख है । बिखरे हुए भारतीय इनकी कला में फिर एक होंगे। देशकाल के शर से बिंधे हुए तुलसी की मंगलकारी कला में भारती स्वयं मुखरित होंगी । इनकी वाणी संसार की कल्मषता को धोयेगी। अंधकार दूर होगा , प्रकाश चारों ओर फैलेगा। इस करुणा से दैदीप्यमान होने के पश्चात् सभी मनोकांक्षाएँ पूर्ण होंगी।

कवि अपने भावों में मग्न थे , जब आंखे खुली तो उन्होंने छलछलाई आंखों वाली करुणा की रागिनी रत्ना को देखा। पर तुलसीदास तो नारी से दिव्य प्रेरणा ले चुके थे , अस्तु रत्ना की रागिनी की मूर्ति को अन्तर में छुपाये हुए बाहर निकल पड़े। उस समय उसी अलौकिक मूर्ति का प्रकाश बाहर किरणों के रूप में कमलदल को खोल रहा था-
चल मंद चरण आए बाहर
उर में परिचित वह मूर्ति सुधर
जागी विश्वाश्रम महिमाधर फिर देखा
संकुचित , खोलती श्वेत पटल
बदली , कमला तिरती सुख जल
प्राची – दिगन्त – उर में पुष्पकल रवि रेखा

स्पष्ट है तुलसीदास की अधिकांश घटनाएँ नायक के अन्तर्मन में ही घटती है , किन्तु भाई का आगमन , रला का नैहर गमन , उसके पूर्व चित्रकूट के विभिन्न स्थलों का कलात्मक वर्णन भी यहाँ उपलब्ध है । भले ही तुलसीदास समाख्यानक प्रगीत है , किन्तु मन के सूक्ष्म भावों को जिस सहज ढंग से यहाँ अभिव्यक्त किया गया है , वह कला बेजोड़ है । यहाँ मुसलमानों की विजय , इस्लाम संस्कृति का प्रसार , हिन्दू राजाओं की हार , हिन्दू संस्कृति का पतन , पत्नी की प्रेरणा , तुलसी की आसक्ति आदि घटनाएँ ख्यात और इतिहास सम्मत हैं।

इसी प्रकार तुलसी की शिक्षा , पूर्व संस्कारों का उदय , प्रकृति दर्शन और उद्बोधन , ससुराल का विनोदपूर्ण वातावरण आदि के रम्य स्थल निराला की मौलिक उद्भावनाएँ हैं जिन्हें अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता । निराला ने जनश्रुतियों को भी इस महत्पूर्ण ऐतिहासिक रचना में स्थान दिया है , परन्तु चमत्कार पूर्ण , या अतिरंजित घटनाओं का यहां सर्वथा परित्याग किया गया है । अर्ध्वगमन का रहस्य तो स्थिर देह में है। मन ही आकाश की अनेक तरंगें पार करता है । अन्तर्मन में ही सारी घटनाएँ घटती हैं।

तुलसी का यह उर्ध्वगमन राम की शक्ति पूजा में वर्णित हनुमान के उर्ध्वगमन से समानता रखता है। फर्क इतना ही है कि यहाँ रत्नावली बाधक बनती है वहां अंजना स्वरूपा पार्वती। इस प्रकार अन्त भी प्रायः एक समान होता है। यहां वही रत्ना लक्ष्मी और सरस्वती रूप में तिरती दिखाई देती है जैसा कि राम की शक्तिपूजा में महाशक्ति अपने समाज सहित प्रकट होती है । ये दोनों स्थल इन दोनों रचनाओं की चरम सिद्धि है।

दृष्टव्य है दोनों रचनाओं का आरंभ युद्ध के पश्चात् की सन्ध्या से होता है और अवसान … या अन्त सूर्योदय से । राम की शक्ति पूजा के कथा विन्यास – सा ही इस रचना का कथा विन्यास नवक्लासिक पद्धति का आग्रह करता है । इसमें पश्चिमी और भारतीय दोनों काव्य दृष्टियों की नाटकीय योजनाएँ मिल जाती हैं।

इस रचना में तुलसीदास के परिचय तक आरंभ प्रकृति दर्शन और उर्ध्वगमन तक यल , रत्नावली के मायके गमन तक प्राप्त्याशा , तुलसी को रत्ना द्वारा उद्बोधन तक नियताप्ति और रत्ना के दिव्य सौंदर्य शक्ति से साक्षात्कार और प्रकाश में बहिर्गमन तक फलागम माना जाता है इस प्रकार तुलसीदास की कथावस्तु बैलेड के पूर्ण अनुकूल है। क्रमश: –

  • डाॅ. बलदेव

यह भी पढ़े-

तुलसीदास के जीवन की यह खास घटना गोकुलनाथ की दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता में है वर्णित

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