प्रयागराज: श्रीकृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह मामले से जुड़े मुकदमों की पोषणीयता को चुनौती देने वाली याचिका पर फैसला सुरक्षित

प्रयागराज: श्रीकृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह मामले से जुड़े मुकदमों की पोषणीयता को चुनौती देने वाली याचिका पर फैसला सुरक्षित

प्रयागराज, अमृत विचार। इलाहाबाद हाईकोर्ट में श्रीकृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह विवाद मामले में दाखिल सभी 18 याचिकाओं की पोषणीयता को चुनौती देने वाली मस्जिद समिति द्वारा सीपीसी के आदेश 7 नियम 11 के तहत दाखिल याचिका पर महीनों से चल रही सुनवाई के बाद शुक्रवार को फैसला सुरक्षित कर लिया गया है। उम्मीद है कि ग्रीष्मावकाश के बाद हाईकोर्ट खुलने के साथ ही फैसला आ सकता है। मामले की सुनवाई न्यायमूर्ति मयंक कुमार जैन की एकल पीठ के समक्ष हो रही थी। 

हिंदू पक्ष की ओर से दाखिल सभी 18 याचिकाओं में एक ही प्रार्थना की गई थी कि मथुरा में कटरा केशव देव मंदिर के साथ 13.37 एकड़ के परिसर से शाही ईदगाह मस्जिद को हटा दिया जाए। इसके अलावा याचिकाओं में शाही ईदगाह मस्जिद का श्रीकृष्ण जन्मभूमि से अवैध कब्जा हटाने तथा मौजूदा ढांचे को गिराने की मांग शामिल थी। प्रबंध ट्रस्ट शाही मस्जिद ईदगाह की समिति ने कोर्ट के समक्ष मुख्य रूप से यह तर्क दिया कि हाईकोर्ट के समक्ष लंबित मुकदमों पर उपासना स्थल अधिनियम, 1991, परिसीमा अधिनियम, 1963 और विशिष्ट राहत अधिनियम, 1963 के तहत रोक है। 

मस्जिद पक्ष की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता तसनीम अहमदी ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से तर्क दिया कि लंबित अधिकांश मुकदमों में वादी भूमि के स्वामित्व का अधिकार मांग रहे हैं जो 1968 में श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ और शाही मस्जिद ईदगाह के प्रबंधन के बीच हुए समझौते का विषय था, जिसके तहत विवादित भूमि को विभाजित किया गया और दोनों समूहों को एक-दूसरे के क्षेत्र से दूर रहने को कहा गया। इसके साथ ही अहमदी ने यह भी तर्क दिया की वादी ने 1968 के समझौते को स्वीकार किया है और इस तथ्य को भी स्वीकार किया है कि विवादित भूमि का कब्जा मस्जिद प्रबंधन के नियंत्रण में है और इसलिए यह वाद सीमा अधिनियम के साथ-साथ उपासना स्थल अधिनियम द्वारा भी वर्जित होगा। अधिवक्ता ने आगे कहा कि अगर शिकायत में यह दावा सही माना जाता है कि मस्जिद का निर्माण 1968 के समझौते के बाद किया गया था तो वह मुकदमे में यह दावा कैसे कर सकते हैं कि उन्हें समझौते के बारे में 2020 में पता चला। इसके साथ ही अहमदी ने यह भी तर्क दिया की स्थायी निषेधाज्ञा की प्रार्थना केवल उस व्यक्ति को दी जा सकती है, जिसके पास मुकदमे की तारीख को संपत्ति का वास्तविक कब्जा हो, चूंकि वादी का कब्जा मस्जिद पर नहीं है, इसीलिए वे स्थायी निषेधाज्ञा के लिए प्रार्थना नहीं कर सकते हैं। 

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मुस्लिम पक्ष के अधिवक्ताओं ने शुक्रवार को हुई सुनवाई के दौरान कहा कि मौजूदा 18 सिविल वादों में एक भी वादी के पास प्रश्नगत संपत्ति के संबंध में वाद दाखिल करने की विधिक हैसियत नहीं है। वादी न तो श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट के ट्रस्टी हैं और न ही बनारस के राजा पटनीमल, महामना पंडित मदन मोहन मालवीय, गोस्वामी गणेशदत्त और भीखनलाल के वंशज हैं। किसी भी सिविल वाद में इनके वंशजों को पक्षकार भी नहीं बनाया गया है। सिविल वाद की पोषणीयता को लेकर हिंदू और मुस्लिम पक्षकारों की ओर से दिन प्रतिदिन चल रही बहस में सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता तसनीम अहमदी विडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये तो शाही ईदगाह की ओर से रणवीर अहमद और वक्फ बोर्ड की ओर से अफजाल अहमद दलीलें दे रहे थे। हिंदू पक्षकारों का दावा है कि श्रीकृष्ण लला विराजमान का विधिक अस्तित्व है। वह उनके भक्त हैं,इसलिए उन्हें वाद दाखिल करने का अधिकार है। 

श्रीकृष्ण जन्मभूमि मुक्ति निर्माण के अध्यक्ष व मंदिर पक्षकार आशुतोष पांडेय ने व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होकर अपना पक्ष रखा था। इस दौरान उन्होंने कहा कि आदेश 7 नियम 11 इस मामले में लागू नहीं होता है। उन्होंने आगे कहा कि 13 एकड़ जमीन लड्डू गोपाल की है। इसे कोई न बेच सकता है और न कोई इस जमीन का समझौता कर सकता है। यह पूरी जमीन श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट के नाम दर्ज है। खसरा और नगर निगम के रिकॉर्ड में भी ट्रस्ट के नाम पर ही जमीन दर्ज है। सरकारी रिकॉर्ड में कहीं भी शाही ईदगाह के नाम कोई भी जमीन नहीं है। इस मामले में वर्शिप एक्ट, लिमिटेशन एक्ट, वक्फ एक्ट के अधिनियम लागू नहीं होते हैं। हिंदू पक्ष की ओर से कोर्ट को यह भी बताया गया कि वक्फ की तरफ से जो प्रार्थना पत्र व शपथपत्र दाखिल किए गए हैं, उसपर वक्फ बोर्ड के चेयरमैन के हस्ताक्षर नहीं हैं, बल्कि वे जाली हैं। 

हिंदू पक्ष के वरिष्ठ अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन ने कहा कि विवादित संपत्ति के पूर्ण भाग पर प्राचीन स्मारक संरक्षण अधिनियम 1958 के प्रावधान लागू हैं। इसकी अधिसूचना 26 फरवरी 1920 को ही जारी की जा चुकी है। अब इस संपत्ति पर वक्फ के प्रावधान लागू नहीं होंगे। मौजूदा मामले की शुरुआत वर्ष 2020 में अधिवक्ता रंजना अग्निहोत्री और सात अन्य लोगों ने मिलकर मथुरा सिविल कोर्ट में एक मुकदमा दाखिल करने के साथ की। याचिका को शुरू में एक सिविल अदालत ने खारिज कर दिया था, लेकिन बाद में जिला अदालत ने इसे ‘सुनवाई योग्य’ माना। ढाई साल के बाद, उसी अदालत में उक्त मामले से संबंधित अन्य 17 याचिकाएं और दाखिल की गईं।

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