बरेली: स्टेशनरी के सामान के जरिए नशे की दुनिया में कदम रख रहे बच्चे, जिला अस्पताल में हर महीने आ रहे 15-20 केस

शब्या सिंह तोमर, बरेली, अमृत विचार। आपको एहसास हो या न हो, अपने बच्चों को नशे से बचाए रखना आपके लिए धीरे-धीरे बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। यह चुनौती इसलिए और ज्यादा गंभीर है क्योंकि जो मामले डॉक्टरों के पास पहुंच रहे हैं, उनमें ज्यादातर सॉल्वेंट और व्हाइटनर जैसे नशे के हैं जो बच्चों को पागलपन की ओर तक ले जा सकते हैं।
सिर्फ जिला अस्पताल का रिकॉर्ड बता रहा है कि इस तरह के नशे की लत का शिकार होकर यहां हर महीने 15 से 20 बच्चे इलाज के लिए लाए जा रहे हैं। शहर के निजी डॉक्टरों के पहुंचने वाले ऐसे केस सैकड़ों में हैं।
बच्चे इसलिए सॉल्वेंट जैसे नशे के ज्यादा शिकार हो रहे हैं क्योंकि इसे मुहैया करना उनके लिए आसान होने के साथ सस्ता भी है। उनकी स्टेशनरी से भी कम पैसों में यह उन्हें हासिल हो सकता है। पिछले दिनों जिला अस्पताल में ऐसे नशे की लत का शिकार होकर पहुंचने वाले बच्चों में सबसे कम सात साल का बच्चा था।
दूसरी गंभीर बात यह है कि उनकी स्टेशनरी में ही व्हाइटनर, पेट्रोल, पेंट, डेंड्राइट में पड़ने वाले थिनर जैसी कई ऐसी चीजें शामिल हैं जिनका इस्तेमाल वे नशे के लिए कर सकते हैं। डॉक्टरों के पास ऐसे कई केस पहुंचते भी रहते हैं। सॉल्वेंट के अलावा तंबाकू, गुटखा और सिगरेट के नशे के शिकार बच्चे भी इलाज के लिए पहुंच रहे हैं लेकिन इनकी उम्र आमतौर पर 15 साल से ज्यादा होती है। यह नशा स्कूलों के बच्चे तो कर ही रहे हैं, पिछड़ी बस्तियों में रहने वाले काफी बच्चे भी इसके आदी हैं।
फेफड़े, दिल और दिमाग पर असर डालता है सॉल्वेंट का नशा
जिला अस्पताल के मनोवैज्ञानिक डॉ. आशीष बताते हैं कि सॉल्वेंट का नशा बहुत खतरनाक होता है। यह नाक के जरिए सीधे दिमाग तक पहुंचता है। ज्यादा नशा होने पर पागलपन होने लगता है। इससे दिमाग को काफी ऊर्जा मिलती है लेकिन बच्चे कमजोर होने लगते हैं। कुछ को फेफड़ों की भी बीमारी होने लगती हैं क्योंकि सांस के साथ फेफड़ों में पहुंचकर यह संक्रमण शुरू कर देता है। रासायनिक प्रतिक्रिया की वजह से दिमाग में भी सूजन आने लगती है। उनके पास हर महीने 15-16 मामले सिर्फ व्हाइटनर के नशे के आते हैं।
लक्षण: आपा खोने लगते हैं बच्चे
डॉ. आशीष कहते हैं कि बच्चे का व्हाइटनर या पेट्रोल को रूमाल लगाकर सूंघना तो बहुत सामान्य हो गया है। इसका पहला लक्षण बच्चे का चुपचाप रहना है। फिर बच्चे को भूख कम लगने लगती है और गुस्सा आने लगता है। वह अकेले रहने लगता है, चिड़चिड़ापन भी बढ़ता रहता है। उसकी अलग दुनिया बन जाती है। जब वह गुस्से में आपे से बाहर होकर तोड़फोड़ करने लगता है, तब कहीं घर वालों को कुछ गड़बड़ होने का एहसास होता है। उन्होंने बताया कि आमतौर पर बच्चे इसे पन्नी में डालकर तेजी से सूंघते हैं। इससे इसकी गंध एकदम दिमाग में जाती है।
आप सब्र से लें काम
अभिभावकों को इतनी गुंजाइश रखनी चाहिए कि अगर बच्चे ने पहली बार कोई नशा किया है तो वह इसे स्वीकार करने में डरे नहीं। चूंकि गलत संगत ही गलत आदतों को बढ़ावा देती है, इसलिए बच्चे के दोस्तों के बारे में हमेशा पता रखना चाहिए। लगातार जागरूक रहने बच्चे की हरकतों पर नजर रखने से उसे नशे से बचाया जा सकता है।
हुक्का बार भी बच्चों को ले जा रहे हैं नशे की तरफ
निर्वाण रिहैब सैन्टर की साइकोलॉजिस्ट शाफिया अंजुम बताती हैं कि शहर में चल रहे हुक्का बार भी बच्चों को नशे की तरफ ले जा रहे हैं। कई जगह हुक्के के मिन्ट,चॉकलेट,स्ट्राबेरी, तंबाकू जैसे ढेरों फ्लेवर मिलते हैं। बच्चे पहले शौकिया तौर पर इसे आजमाते हैं और कई बार इंस्टाग्राम पर रील बनाकर भी डाली जाती है। बाजार में कई ऐसे ड्रिंक भी आ रहे हैं जिनमें अल्कोहल की कम मात्रा होती है। इनसे शुरुआत करने के बाद वे 18-19 की उम्र तक शराब पीना शुरू कर देते हैं। उन्होंने बताया कि पिछले एक महीने में उनके पास नशे की लत के शिकार हुए चार बच्चों के केस काउंसिलिंग के लिए आए हैं।
जिला अस्पताल में पहुंचे कुछ बच्चों के केस
करीब 17 साल के एक छात्र ने बताया कि उसने पहली बार अपने पिता को सिगरेट पीते देखकर खुद सिगरेट पी और फिर अपने तीन दोस्तों को भी उकसाकर पिलाई। एक दूसरे केस में कुछ छात्रों ने एक साथ सॉफ्ट ड्रिंक में शराब मिलाकर पीना शुरू किया। इसके बाद शराब पीने की आदत लगा ली। एक छात्र को उसके दोस्तों ने रेस्टोरेंट में ले जाकर फ्लेवर वाला हुक्का पिलाया, बाद में वह तंबाकू वाले हुक्के का आदी बन गया। एक 17 वर्षीय छात्र ने स्मोकिंग की करते हुए रील बनाई। अभिभावक ने उससे फोन छीन लिया तो उसने घर में तोड़फोड़ करनी शुरू कर दी।
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