मुरादाबाद: नवाब मज्जू खां ने चटाई थी अंग्रेजों को धूल

मुरादाबाद: नवाब मज्जू खां ने चटाई थी अंग्रेजों को धूल

शीशपाल सिंह चौहान/मुरादाबाद, अमृत विचार। जंग-ए-आजादी में शहर के नौजवानों ने त्याग और बलिदान की ऐसी गाथा लिखी कि मुरादाबाद का नाम इतिहास में अमर हो गया। इन्होंने नवाबी और तमाम ऐश-ओ-आराम छोड़कर नगर की पथरीली सड़कों पर अपने लहू से इंकलाब की जो इबारत लिखी उसे सुनकर लोगों के दिल कांप उठते हैं। अंग्रेजों …

शीशपाल सिंह चौहान/मुरादाबाद, अमृत विचार। जंग-ए-आजादी में शहर के नौजवानों ने त्याग और बलिदान की ऐसी गाथा लिखी कि मुरादाबाद का नाम इतिहास में अमर हो गया। इन्होंने नवाबी और तमाम ऐश-ओ-आराम छोड़कर नगर की पथरीली सड़कों पर अपने लहू से इंकलाब की जो इबारत लिखी उसे सुनकर लोगों के दिल कांप उठते हैं। अंग्रेजों की गोलियों से शहीद हुए भारत मां के ऐसे ही सपूत का नाम था नवाब मज्जू खां।

नवाब मज्जू खां का जन्म मंडी बांस निवासी मोहम्मद दीन अहमद के घर हुआ था। शिक्षा जगत में कदम रखते ही नवाब मज्जू के सामने भारत पर अंग्रेजों के जुल्मों और अत्याचारों की किताब सामने आ गई। यह देख उनके दिल में इंकलाब की चिंगारी धधक उठी। उम्र के साथ-साथ ही इसी चिंगारी ने मशाल का रूप ले लिया। इसके बाद नवाब मज्जू ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ अभियान छेड़ दिया। उन्होंने 19 मई 1857 का संघर्ष करते हुए इंकलाब की ऐसी मशाल जलाई कि आजादी के तमाम मतवाले सड़कों पर आ गए।

इनकी दीवानगी ने अंग्रेजों को मुरादाबाद से खदेड़ दिया। जेल तोड़कर बाहर आए मौलवी मुन्नू भी इस आंदोलन में उनके साथ कूद पड़े। नवाब मज्जू के डर से भागे अंग्रेजों ने नैनीताल में शरण ली। इस कामयाबी पर आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर ने उन्हें मुरादाबाद का नाजिम बना दिया। उनके सेनापति बरेली निवासी जनरल बख्त खान ने नवाब मज्जू को रजबपुर स्थित हजरत बहाबुउद्दीन फरीदी की मजार पर इसका प्रमाण पत्र सौंपा। इसके बाद नवाब मज्जू ने आंदोलन की गति और तेज कर दी। इससे प्रभावित होकर बहादुरशाह जफर ने 22 अप्रैल 1858 को फिरोज खान को मुरादाबाद भेजा।

25 अप्रैल 1858 को अग्रेजों ने नवाब की हवेली पर किया था हमला
वकी रसीद बताते हैं कि 25 अप्रैल 1858 की सुबह अंग्रेज शासक विल्सन ने उनकी हवेली पर हमला किया। उनके साथ सिपाही अंदर घुस गए, मगर भारत माता के इस सपूत ने सातों सिपाहियों को मौत की नींद सुला दिया। इसके बाद उनकी गोलियां खत्म हो गईं, तब अंग्रेजी सिपाहियों ने उनका सीना गोलियों से छलनी कर दिया। इसके बाद अंग्रेजों की जुल्म की ऐसी दास्तां लिखी, जिससे सुनकर आज भी दिल दहल जाता है। उस समय नवाब मज्जू की हवेली में पुताई काम चल रहा था। अंग्रेजों ने उनके शव को चूने की भट्टी में डाल दिया। फिर शव को हाथी के पैर से बांधकर गलशहीद तक घसीटा गया। इस पर उमड़े क्रांतिकारियों पर भी गोलियां चलाईं गईं। इसके बाद अंग्रेजों ने मज्जू का शव इमली के पेड़ से लटका दिया। बाद में शहीद के शव को गलशहीद बाबा ने दफनाया।

रामगंगा नदी किनारे अंग्रेजों के साथ हुआ था युद्ध
शहीद-ए-वतन नवाब मज्जू खां मेमोरियल सोसायटी के अध्यक्ष अधिवक्ता वकी रसीद ने बताया कि फिरोज शाह के आने की भनक मिलने पर रामपुर के नवाब यूसुफ खान ने अंग्रेजों के साथ मिलकर मुरादाबाद पर चढ़ाई कर दी। रामगंगा नदी किनारे जमकर युद्ध हुआ। अंग्रेजों की सेना में शामिल भारतीयों ने अपनों पर हमला करने से इंकार करते हुए मूंढापांडे में रायफलों की बटें तक तोड़ दीं। इसके बाद अंग्रेजों की सेना ने जनता के घरों में घुसकर जुल्म करने शुरू कर दिए। इससे आहत होकर फिरोज लड़ाई बीच में ही छोड़कर चले गए। इसके बाद भी नवाब मज्जू ने हिम्मत नहीं हारी और अंग्रेजों को नाकों चने चबाते हुए उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया। तब अंग्रेजों ने उन्हें जान से मारने का फैसला किया।

नवाब मज्जू के शव को जहां दफानाया, वहां 2003 में बना मजार
जुल्म की दास्तां का गवाह वह इमली का पेड़ गलशहीद थाने के सामने अब भी है। 2003 में यहां मजार का निर्माण किया गया। उन्होंने बताया कि नवाब मज्जू के परिजनों ने इस घटना के बाद मुरादाबाद छोड़ दिया। कुछ परिजन इंग्लैंड चले गए तो कुछ दिल्ली में जाकर बस गए। नवाब मज्जू और उनके जैसे हजारों क्रांतिकारियों द्वारा अपने लहू से नगर की सड़कों पर लिखी इंकलाब की दास्तान-ए-क्रांति की इबारत की परिणीति में ही हमें 15 अगस्त 1947 को आजादी मिल सकी। भारत माता के ऐसे सपूतों का बलिदान कभी भुलाया नहीं जा सकेगा।

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