दलित का खाना और नेता के संस्कार

इन दिनों जब मीडिया में किसी नेता की दलित के घर खाने की खबर पढ़ता हूं तो सिर शर्म से झुक जाता है। मैं समझ नहीं पाया हूं कि इसमें बताने लायक क्या है? किसी नेता ने दलित के यहां खाया या नहीं खाया इससे उसके नजरिए पर कोई असर नहीं पड़ता। सवाल यह है …
इन दिनों जब मीडिया में किसी नेता की दलित के घर खाने की खबर पढ़ता हूं तो सिर शर्म से झुक जाता है। मैं समझ नहीं पाया हूं कि इसमें बताने लायक क्या है? किसी नेता ने दलित के यहां खाया या नहीं खाया इससे उसके नजरिए पर कोई असर नहीं पड़ता। सवाल यह है कि दलितों के प्रति उसका नजरिया क्या है?
जो नेता कहता है मैंने आज दलित के घर खाना खाया समझो वह नेता दलितों के प्रति समानतावादी नजरिया नहीं रखता। समानतावादी नजरिया व्यवहार में उतारने की चीज है, व्यवहार में यदि किसी बात को उतार लेते हैं तो बात बहुत दूर तक बिना बताए चली जाती है। असमानतावादी नजरिए के कई खूबसूरत रुप हैं जो हम मध्यवर्ग के लोगों में प्रचलन में हैं। उनमें खाने का अंदाज, खाने की भाषा और खाने की वस्तुएं भी शामिल की जा सकती हैं! लेकिन खाने में तो अमीरी गरीबी,जाति या धर्म नहीं होना चाहिए। खाना तो खाना है वह कोई भी बनाए और कोई भी खिलाए।
असल में जाति कहीं नहीं होती, वह हमारे संस्कारों में घुस गई है,संस्कारों से हमें जाति को निकालना है तो जातिरहित भाव-बोध में रहें और जाति के बारे में एकदम न सोचें। आप मानते इसलिए हैं क्योंकि सोचते हैं। जाति मानने की चीज है,आप नहीं मानेंगे,तो जाति होगी नहीं। हमारे नेताओं के संस्कार ऐसे हैं कि वे जाति मानते हैं,जाति के बारे में सोचते हैं, इसलिए बोलते भी हैं। वे मनुष्य की तरह बोलें और मनुष्य के नजरिए से देखें तो उनको जातिभेद नजर नहीं आएगा। घर -घर नजर आएगा,यह नहीं होगा कि यह दलित का घर है,वो ब्राह्मण का घर है। खाना तो खाना है,वह किसी जाति का नहीं होता ।
दलितगांव में पहली रात का सुंदर अनुभव
दलितों के यहां नेताओं के खाना खाने को लेकर इन दिनों बहुत सरस चर्चाएं हो रही हैं। मेरे पास दलित भोजन की सरस चर्चा नहीं है लेकिन दलित चर्चा जरुर है । जब मैं मथुरा में माकपा के लिए काम करता था और हमारे इर्द-गिर्द सभी सवर्ण साथी हुआ करते थे, एसएफआई में भी सभी सवर्ण,पार्टी में सवर्ण और हमलोग बड़ी -बड़ी बातें किया करते थे। गरीब की बस्ती, गरीब का घर आदि। मैं 1974-75 में मथुरा के कम्युनिस्टों के संपर्क में आया।
माकपा और भाकपा दोनों के ही नेता मित्र थे। सव्यसाची माकपा में और शिवदत्त चतुर्वेदी भाकपा में मेरे मित्र थे। सव्यसाची का सूत्र मुझे मेरे मामा मनमोहन के जरिए मिला लेकिन ठीक से परिचय हुआ भाकपा के दफ्तर पर एक गोष्ठी के दौरान। मैंने माकपा के मित्रों में यह प्रस्ताव रखा कि हमें सचेत रुप से दलित युवाओं को अपना मित्र बनाना चाहिए और सचेत रुप से उनको अपने संगठनों में शामिल करना चाहिए। इसी चक्कर में एक दिन एक युवा लड़के से मुलाकात हुई ,वह फरह के पास एक गांव में रहता था।
उसके गांव के आसपास के पांच गांव लाल गांव कहलाते थे। फरह वह इलाका है जहां भाजपा के महान नेता दीनदयाल उपाध्याय का जन्म हुआ था और उनको आसपास के लोग बड़ी श्रद्धा से देखते थे। जिस दलित नौजवान से हमारा परिचय हुआ वह क्रिश्चियन के इंटरमीडिएट कॉलेज में पढ़ता था और संभवतःक्लैंसी इंटर कॉलेज उसका नाम है। उस कॉलेज में एक शिक्षक हुआ करते थे वे माकपा के हमदर्द थे।
वह लड़का इन दिनों यूपी सरकार में बड़ा अधिकारी है, वह जाति से चमार था,उसके पिता मथुरा शहर में ही पॉलिस करके रोजगार करते थे और उसके साथ मेरा परिचय पिता की दुकान पर ही हुआ था। जो बाद में गहरी मित्रता में बदल गया । यह घटना 1977 के आसपास की है,उसके अलावा दो और दलित लड़के हमने दोस्त बनाए जो बाद में मथुरा जिले से विधायक बने और वे अभी भी बसपा-सपा आदि किसी न किसी दल से जुड़े हैं इनमें एक अजय कुमार पोइया ,जो अब हमारे बीच में नहीं हैं,और दूसरे हैं प्रेमसिंह।
ये दोनों ही मथुरा शहर के मनोहरपुरा मुहल्ले में रहते थे। हमारे ये दो मित्र शहर के थे तीसरा मित्र फरह से था। फरह वाला लड़का पहला दलित मित्र था। मैंने उसको एकदिन प्रस्ताव दिया कि हम तुम्हारे गांव जाना चाहते हैं और दलितों को संगठित करना चाहते हैं। फरहवाले लड़के का नाम मैं नहीं लिख रहा क्योंकि वो इनदिनों बड़ी सरकारी नौकरी में यूपी में है और मैं उससे तीन दशक से ज्यादा समय से नहीं मिला। वह मान गया और हम दो लड़के फरहवाले लड़के के गांव गए।
दूसरा जो लड़का साथ गया वह यूपी पुलिस में बड़ा अधिकारी रहा है,वह एसएफआई का मंत्री था।। हम दोनों शाम को फरह के दलितगांव पहुँचे.यह निजी पहल पर मेरी यह पहली दलित गांव की यात्रा थी। मन में जोश था और बड़ी बड़ी बातें सोचा करता था। फरहवाले लड़के ने गांव में पंचायत घर में रात को मीटिंग रखी और हम बडे ही रोमैंटिक भाव से मीटिंग में गए,जाड़े का समय था,पंचायत के हॉल घर में गांव के अनेक इकट्ठा हुए थे। उस समय तक माकपा का कोई युवाओं का संगठन बना नहीं था। हम जहां पर भी जाते प्रगतिशील युवा मोर्चा के नाम से संगठन की शाखा खोलकर चले आते थे।
मैं मथुरा में उस संगठन का संयोजक था । फरह के इस गांव में हम संगठन बनाने के उद्देश्य से आए थे। गांव के पंचायत हॉल घर में मीटिंग रखी गयी थी। हॉल भरा हुआ था। हॉल में घुसे तो मन को बड़ा तगडा झटका लगा अंदर कुप्पियां जल रही थीं और कमरे के एक दरवाजे को छोड़कर सभी दरवाजे और खिड़कियां बंद थे , अंदर हुक्कों के गुड़डगुड़ाने की आवाजें आ रही थीं और तम्बाकू का धुँआ भरा हुआ था । यह मेरा पहला साक्षात्कार था हुक्के के साथ। अंदर हुक्के का धुँआ इस कदर भरा हुआ था कि कोई चेहरा दिख नहीं रहा था लेकिन हॉलघर पूरा भरा था , हम बहुत खुश थे कि पहलीबार इतने दलित एक साथ मीटिंग में सुनने आए हैं।
हम दोनों मित्रों ने वहां उपस्थित लोगों को सम्बोधित किया,लोगों के साथ सवाल-जबाव का सत्र भी चला और तकरीबन 10 या साढ़े दस बजे मीटिंग खत्म हुई। मैंने मीटिंग खत्म होते ही अपने फरहवाले मित्र से पूछा कि मित्र,कुछ खानेपीने का इंतजाम भी है ! उसने बताया हम दोनों की दो अलग दलित घरों में खाने की व्यवस्था की गयी है ।
मैं थोड़ा परेशान हुआ मैंने उससे कहा एकसाथ खिलाते तो बढ़िया होता। फरह वाले मित्र ने कहा एकसाथ दो को खिलाना संभव नहीं है ! क्योंकि गांव में रहनेवाले सभी दलित बेहद गरीब हैं।मैं जिस दलित के घर खाना खाने गया वहां पूरे घर में एक ही छोटी सी कुप्पी जल रही थी,फरहवाला मित्र मेरे साथ बैठा था, भोजन के रुप में थाली में रोटी आई और दाल आई ।लेकिन अंधेरे के कारण कुछ भी ठीक से नजर नहीं आ रहा था । मैंने पहला कौर बनाया और दाल में डुबोया तो कटोरी में दाल की जगह दाल का पानी था और उसमें कुछ दाने दाल के दाने तैर रहे थे,जिसे मैं अंगुलियों से महसूस कर रहा था।
मैंने पहला कौर मुँह में दिया तो लगा कि दाल में नमक-हल्दी के अलावा कुछ नहीं है। मैंने अपने फरहवाले मित्र से कहा कि क्या हरी मिर्च का इंतजाम हो सकता है ? वह बोला हरी मिर्च तो मिलना संभव नहीं है। उसने बताया कि हरीमिर्च पूरे गांव में नहीं मिलेगी। यह बहुत गरीब गांव है।खैर किसी तरह मैंने दाल-रोटी खाई और अपने दूसरे मित्र के आने का इंतजार कर रहा था और मन में सोच रहा था कि उसे कैसा खाना मिला होगा ? दूसरे मित्र ने वही बात कही जो मेरे साथ हुआ था। यानी पहली बार दलित के घर में खाना खाया ,गरम-गरम रोटी और गरम दाल का पानी।
किसी तरह हमने आपस में रात बातें करके गुजारी और सुबह साढ़े पाँच बजे पहली बस लेकर मथुरा चले आए। फरहवाला मित्र हमारा पक्का मित्र बन गया और उस गांव के आसपास के इलाके के लोग किसान सभा से जुडे और उनमें पाँच गाँव थे जो लाल गाँव कहलाते थे। हमसे जब भी इन गांवों में जाने को कहा जाता हम कहते दिन कि जाएंगे रात में नहीं ।
हमारी मध्यवर्गीय जेहनियत रात का कष्ट उठाने से बार बार रोकती थी,दिन में खाकर जाते थे और वह इलाका मथुरा शहर से मात्र 40मिनट की दूरी पर था। लेकिन हमने पहलीबार प्रेमचंद के गरीब दलित पात्रों को अपनी आंखों से देखा और उनकी बातें सुनीं।वह अनुभव आज भी रोमांचित करता है।मथुरा शहर के दलित मित्रों के अनुभवों को फिर कभी साझा करेंगे।
- जगदीश्वर चतुर्वेदी
ये भी पढ़ें-