हाई कोर्ट ने हत्यारोपी को किया बरी, कहा- संदिग्ध FIR के आधार पर नहीं दी जा सकती सजा
प्रयागराज, अमृत विचार। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने वर्ष 1982 के एक हत्या मामले में दोषी करार अभियुक्त को बरी करते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष की कहानी में कई खामियां हैं, जिससे मामला संदिग्ध मालूम होता है। इस मामले में यह निष्कर्ष निकालने में संकोच नहीं है कि सूचनाकर्ता और चश्मदीदों तथा पुलिस की मिलीभगत के परिणामस्वरूप आरोपी को मामले में फंसाया गया है।
प्रथम सूचनाकर्ता और पुलिस के बीच हुई सांठ-गांठ के बाद आरोपी/ अपीलकर्ता का नाम प्राथमिकी में दर्ज किया गया। इस आधार पर न्यायमूर्ति सिद्धार्थ वर्मा और न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा की खंडपीठ ने रामबाबू की आपराधिक अपील को स्वीकार करते हुए ट्रायल कोर्ट के फैसले को रद्द कर आरोपी को बरी कर दिया।
मालूम हो कि प्राथमिकी में आरोप लगाया गया है कि 21 अगस्त 1982 की शाम लगभग 7:30 बजे जुए के विवाद में अपीलकर्ता और किसना (मृत) ने जगराम की हत्या कर दी। सूचनाकर्ता (तकदीर सिंह) का दावा है कि किसना ने कुल्हाड़ी का इस्तेमाल किया और अपीलकर्ता ने मृतक का गला घोंटा। हत्या के बाद आरोपियों ने मृतक के शव को कुएं में फेंक दिया।
मामले की सुनवाई के बाद सत्र न्यायाधीश, जालौन, उरई ने मई 1983 में अपीलकर्ता को आईपीसी की धारा 302 और 201 के तहत दोषी करार देते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई, जिसे वर्तमान आपराधिक अपील में चुनौती दी गई है। अंत में कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि मृतक के शव की खोज के संबंध में दर्ज प्राथमिकी में विसंगतियां मिलती है, क्योंकि प्राथमिकी में दावा किया गया था कि सूचनाकर्ता को पता था कि शव को एक कुएं में फेंका गया है जबकि पुलिस ने कुएं तक जाने वाले मार्गों के आधार पर शव की खोज की, जो यह दर्शाता है कि यह जानकारी पुलिस जांच के बाद सामने आई कि शव कुएं में फेंका गया है। इसके अलावा जुआ खेलने के लिए इस्तेमाल किए जा रहे ताश के पत्ते भी बरामद नहीं हुए, साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर चश्मदीदों ने हत्या होते देखी होती तो वह तुरंत हस्तक्षेप करते या इसकी सूचना देते, चूंकि उन्होंने तुरंत कुछ नहीं किया, इससे ऐसा लगता है कि वह घटना के दौरान मौजूद नहीं थे और हो सकता है कि आरोपी के खिलाफ मामला मजबूत करने के लिए यह मनगढ़ंत कहानी बनाई हो।
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