राज्य बनाम राज्यपाल

राज्यपाल बिना कार्रवाई के अनिश्चितकाल के लिए विधेयकों को लंबित नहीं रख सकते। उच्चतम न्यायालय ने विधायिका द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने में देरी पर सवाल उठाते हुए कहा कि राज्य के गैर निर्वाचित प्रमुख के तौर पर राज्यपाल संवैधानिक शक्तियों से संपन्न होते हैं लेकिन वह उनका इस्तेमाल राज्य विधानमंडलों द्वारा कानून बनाने की सामान्य प्रक्रिया को विफल करने के लिए नहीं कर सकते।
उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि इस प्रकार की कार्रवाई संवैधानिक लोकतंत्र के उन बुनियादी सिद्धांतों के विपरीत होगी जो शासन के संसदीय स्वरूप पर आधारित हैं। वास्तव में संसदीय स्वरूप वाले लोकतंत्र में वास्तविक शक्तियां जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास होती हैं।
उच्चतम न्यायालय ने पंजाब के राज्यपाल को 19 और 20 जून को आयोजित ‘‘संवैधानिक रूप से वैध’’ सत्र के दौरान विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर निर्णय लेने का निर्देश दिया है। शीर्ष अदालत ने कहा कि राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त व्यक्ति के तौर पर राज्यपाल राज्य का नाममात्र प्रमुख होता है। अगर राज्यपाल किसी विधेयक को मंजूरी देने से रोकने का निर्णय लेते हैं तो उन्हें विधेयक को पुनर्विचार के लिए विधानमंडल के पास वापस भेजना होता है।
अदालत का यह कहना भी महत्वपूर्ण है कि संघवाद और लोकतंत्र आधारभूत ढांचे के हिस्से हैं और इन्हें अलग नहीं किया जा सकता। संघीय प्रणाली ने विविधता वाले देश भारत में लगातार बदलती राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक गतिशीलता के तहत निरंतर परिवर्तन देखे हैं। संघवाद और लोकतंत्र को आमतौर पर परस्पर सहायक के रूप में देखा जाता है।
2014 से केंद्र की सत्ता में प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी की वापसी ने भारत में संघवाद और लोकतंत्र के बीच संबंधों पर नए सवाल खड़े कर दिए हैं। भारत में संघवाद अपने लोकतंत्र के भीतर बहुसंख्यकवादी रुझानों को किस हद तक नियंत्रित करता है? क्या राष्ट्रव्यापी बहुमत वाली कोई पार्टी नीति निर्माण प्रक्रियाओं को केंद्रीकृत कर सकती है और राज्यों की स्वायत्तता को चुनौती दे सकती है?
बड़ी बात जो नहीं भूलनी चाहिए वह यह कि राज्यपालों के कामकाज को संविधान में ‘सहायता और सलाह’ की शर्त के जरिए स्पष्ट रूप से सीमित किया गया है और उन्हें हासिल विवेकाधीन के प्रावधान का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।
राज्यपालों को किसी भी निर्णय के मामले में रबर स्टांप बनने की जरुरत नहीं है, लेकिन उनके द्वारा खासतौर पर केंद्र में सत्तारूढ़ दल द्वारा शासित नहीं होने वाले राज्यों में यदा-कदा निर्णयों और विधेयकों को रोके जाने के चलन पर सवाल उठते रहे हैं। ध्यान रखा जाना चाहिए कि संघीय व्यवस्था उत्तरदायी और समावेशी होती है।