बंगाल: राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच टकराव का है पुराना इतिहास

बंगाल: राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच टकराव का है पुराना इतिहास

कोलकाता। पश्चिम बंगाल सरकार और राजभवन के बीच चल रहे टकराव ने एक बार फिर राजनीतिक गलियारों में बहस छेड़ दी है। विश्वविद्यालय के कुलपतियों की नियुक्ति, राज्य के स्थापना दिवस जैसे मामलों पर राज्यपाल सीवी आनंद बोस और राज्य सरकार के बीच वाकयुद्ध देखा गया। इसके अलावा पंचायत चुनाव में हिंसा लेकर भी राज्य सरकार और पूर्व राज्यपाल जगदीप धनखड़ के बीच भी टकराव देखा गया था।

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जगदीप धनखड़ अभी देश के उपराष्ट्रपति हैं। राजनीतिक विश्लेषकों और पूर्व नौकरशाहों का मानना है कि पिछले 50 वर्ष में राज्य की राजनीति विचारधाराओं की लड़ाई से 'धनवान और वंचित' वर्ग की लड़ाई में बदल गई है। वहीं, राजभवन और राज्य सरकार के बीच तनावपूर्ण संबंध भी निरंतर चर्चा का विषय बना रहा है।

हार्वर्ड विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर सौगत बोस ने कहा, ‘‘पश्चिम बंगाल में राज्य सरकार और राजभवन के बीच कटु संबंधों का लंबा इतिहास है, चाहे सत्ता में वामपंथी हो या तृणमूल कांग्रेस। सबसे पहले टकराव 1967 में धर्म वीर के कार्यकाल के दौरान सामने आया था और यह अब तक जारी है। राज्य और केंद्र में अलग-अलग दलों की सरकारों की राजनीति के कारण यह स्थिति पैदा होती है।’’

नेताजी सुभाष चंद्र बोस के वंशज सौगत बोस ने बताया कि दोनों पक्षों के बीच चर्चा के जरिये समस्याओं का हमेशा समाधान किया जा सकता है क्योंकि संविधान में राज्यपाल की भूमिका का उल्लेख है। उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश अशोक कुमार गांगुली के अनुसार, राज्यपाल की भूमिका का उल्लेख भारत के संविधान में किया गया है किंतु समस्या तब उत्पन्न होती है, जब राज्यपाल अपनी निर्धारित कार्यसीमा को पार कर देते हैं।

गांगुली ने कहा, ‘‘अगर संविधान के मुताबिक चलें तो राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच किसी भी तरह के विवाद की गुंजाइश नहीं है, क्योंकि राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह के मुताबिक काम करना होता है, लेकिन जब भी राज्यपाल समानांतर सरकार चलाने की कोशिश करते हैं तो टकराव उत्पन्न हो जाता है।’’

बंगाल सरकार और राजभवन के बीच विवाद का इतिहास 1967 से देखा जा सकता है, जब राज्य में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार-संयुक्त मोर्चा का कार्यकाल था। बंगाल कांग्रेस और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के गठबंधन वाली संयुक्त मोर्चा सरकार का राज्यपाल धर्म वीर के साथ नियमित विवाद देखने को मिलता था।

तत्कालीन मुख्यमंत्री अजय मुखर्जी तीन दिनों के भीतर संयुक्त मोर्चा का बहुमत साबित करने की मांग को लेकर राज्यपाल धर्मवीर से भिड़ गए थे। मुखर्जी ने कहा था कि यह काम सदन के पटल पर पूर्व निर्धारित समय पर ही होगा। इसके बाद राज्यपाल ने केंद्र को सिफारिश भेजकर राज्य सरकार को बर्खास्त करा दिया था।

वर्ष 1969 में संयुक्त मोर्चा के दोबारा सत्ता में लौटने के बाद राज्यपाल ने अपने अभिभाषण में राज्य सरकार को बर्खास्त करने की सिफारिश करने के अपने पिछले फैसले की आत्म-आलोचना करने वाले एक अंश को पढ़ने से इनकार कर दिया था। वर्ष 1972 से 1977 तक के कांग्रेस शासन को यदि छोड़ दिया जाए तो वर्ष 1977 में वाम मोर्चा के सत्ता में आने पर विवादों का दौर फिर शुरू हो गया।

यह विवाद 1981 में उस निचले स्तर पर पहुंच गया जब राज्यपाल बीडी पांडे को कई मुद्दों पर सरकार की तीखी बयानबाजी का सामना करना पड़ा। तत्कालीन माकपा राज्य सचिव प्रमोद दासगुप्ता ने उन्हें ‘बंगाल दमन पांडे’ तक कह दिया यानी वह बंगाल का दमन करना चाहते हैं। वर्ष 2007 में नंदीग्राम पुलिस गोलीबारी को लेकर राज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी की ओर से की गई टिप्पणी के बाद भी टकराव देखने को मिला था।

माकपा नेताओं ने राज्यपाल से राजनीति में शामिल होने तक के लिए कह दिया। उस समय की विपक्षी पार्टी तृणमूल ने राज्यपाल के बयान का समर्थन किया था। तृणमूल के 2011 में सत्ता में लौटने के बाद राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच तनाव जारी रहा। राज्यपाल केसरी नाथ त्रिपाठी के शुरुआती कार्यकाल में राज्य सरकार के साथ उनके सौहार्द्रपूर्ण संबंध रहे, लेकिन समुदायों के बीच झड़पों के बाद उन्होंने प्रशासन की आलोचना की।

इसके बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने राज्यपाल पर उनका अपमान करने का आरोप लगाया। बाद में राज्य के राज्यपाल बने जगदीप धनखड़ के कार्यकाल में यह टकराव और भी निचले स्तर पर पहुंच गया। असहमति, टकराव और सार्वजनिक विवाद हर दिन सुर्खियों में रहते थे। इसके बाद आनंद बोस के राज्यपाल बनने के बाद शुरू में राज्य सरकार के साथ उनके संबंध सौहार्दपूर्ण रहे।

यहां तक की राज्य भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) इकाई ने उनकी नियुक्ति पर नाराजगी भी व्यक्त की थी। इसके बाद बाद राज्यपाल द्वारा कई मुद्दों पर राज्य सरकार के फैसलों और कदमों से असहमति के कारण टकराव बढ़ने लगा।

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