हमारे प्राचीन उपन्यास, उनके पात्र और घटनाओं की ऐतिहासिकता

हमारे प्राचीन उपन्यास, उनके पात्र और घटनाओं की ऐतिहासिकता

[उपन्यास संस्कृत का शब्द है जिसका व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है निकट या अगल-बग़ल रखना– उपन्यस्त करना—(उप+नि+अस्‌+घञ्‌).] हिंदी में उपन्यास शब्द का प्रयोग एक विशिष्ट अर्थ में रूढ़ हो गया है—‘वह काल्पनिक गद्य कथा जिसमें वास्तविक जीवन से मिलते जुलते चरित्रों और कार्यकलापों का विस्तृत और सुसम्बद्ध चित्रण हो’ (नागरी प्रचारिणी सभा का हिंदी शब्दसागर). यह रूढ़ …

[उपन्यास संस्कृत का शब्द है जिसका व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है निकट या अगल-बग़ल रखना– उपन्यस्त करना—(उप+नि+अस्‌+घञ्‌).] हिंदी में उपन्यास शब्द का प्रयोग एक विशिष्ट अर्थ में रूढ़ हो गया है—‘वह काल्पनिक गद्य कथा जिसमें वास्तविक जीवन से मिलते जुलते चरित्रों और कार्यकलापों का विस्तृत और सुसम्बद्ध चित्रण हो’ (नागरी प्रचारिणी सभा का हिंदी शब्दसागर). यह रूढ़ अर्थ कहाँ से आया ? मालूम नहीं।

उपन्यास के इस कोशगत अर्थ से यदि गद्य की बंदिश हटा दें, तो हमारी उपन्यास परम्परा अति प्राचीन है। रामायण और महाभारत, जो इतिहास ग्रंथ कहे जाते हैं। क्या पता उपन्यास ही हों. दिल को बहुत चोट लगती हो तो उन्हें ऐतिहासिक उपन्यास की श्रेणी में डाल सकते हैं. पुराण-कथाओं के लिए भी अक्षुण्ण इतिहास होने का दावा मौजूद है। पर कथाओं की उछाल और स्वच्छंद, रंगारंग तरंगें देखते हुए, कुछ लोगों का दिल दुखाने का जोखिम उठाकर, उन्हें भी ऐतिहासिक उपन्यास की श्रेणी में डाला जा सकता है जिनमें कुछ राजवंशों की वंशावली और कुछ अपुष्ट इतिहास भी पिरोया हुआ है। प्रबंध काव्य यानी महाकाव्य तो उपन्यास हैं ही, भले ही उनमें से अधिकांश के मूल कथानक महाभारत या पुराणों से उड़ाए गए हैं।

पैशाची प्राकृत में लिखी गुणाढ्य की बड्डकहा (बृहत्कथा) पहली-दूसरी शताब्दी में लिखा गया एक बृहद्‌ कथा-ग्रंथ है जो बाद में लुप्त हो गया। किंतु उसकी कथाएँ संस्कृत में सोमदेव के कथासरित्सागर और क्षेमेंद्र की बृहत्कथामंजरी (दोनों ग्यारहवीं शताब्दी) में उपलब्ध हैं। बृहत्कथा तो निखालिस उपन्यास ग्रंथ था. वह आंध्र-सातवाहन राजाओं का युग था जब भारतीय व्यापार उन्नति के शिखर पर था और जलमार्गों से व्यापारिक नौकाओं के क़ाफ़िले या पोतसमूह निरंतर देश-देशांतर की यात्राओं पर रहते थे।

ख़ाली समय में व्यापारियों एवं नाविकों के मनोरंजनार्थ इन्हीं यात्राओं के अनुभव के आधार पर अनेक कथाएँ प्रचलित हो गई होंगी, जिनका विस्तृत संकलन गुणाढ्य ने बड्डकहा के नाम से पैशाची प्राकृत में तैयार कर दिया, जो इलाक़े के सामान्य जन में प्रचलित बोलचाल की भाषा थी।] यहाँ बात उपन्यासों की नहीं, उपन्यास के पाठकों की है। हमारे प्राचीन ‘उपन्यासों’—ख़ासकर रामायण, महाभारत और पुराणों– के पाठक कितने उदार और उदात्त थे ! हाय, कितना पतन हुआ है ! प्राचीनकाल के उपन्यासकार जो भी लिखते थे, उनके लिखते ही वह पाठकों के लिए इतिहास हो जाता था, लक्षणा में नहीं, अभिधा में

सचमुच का इतिहास. आज तक जीवंत बना हुआ इतिहास।
उपन्यासकार उपन्यास लिखते थे और पाठक उसे अक्षरस: सत्य मानता था. वे जो भी लिखते थे, वही पाठक के लिए प्रमाण बन जाता था, अकाट्य प्रमाण (उपन्यास-लेखकों की कितनी क़द्र थी !) उपन्यासों के पात्र किसी अंतरिक्षयान का झंझट पाले बिना पल भर में एक लोक से दूसरे लोक जा पहुँचते थे। किसी का सर काटकर, फिर से जिला देना तो आम बात थी। बच्चे का सर काटकर हाथी के बच्चे का सर लगाया जा सकता था। किसी का शरीर मनुष्य का और गर्दन व मुख घोड़े का हो सकता था।

हमारे यहाँ की उन्नत शल्यक्रिया का कमाल ! कोई मनुष्य और शेर के बीच की ऐसी चीज़ हो सकता था, जिसे न मनुष्य कहा जा सके, न शेर. नदियाँ मनुष्यों से विवाह करती थीं, बाक़ायदे माँ बनती थीं। गाय तक मनुष्य के बच्चे को जन्म दे सकती थी, बस अपने गर्भ की निशानी के तौर पर बच्चे का कान अपने-जैसा छोड़ देती थी। पिता की भी ज़रूरत नहीं, स्त्रियाँ महज़ फल खाकर संतान उत्पन्न करती थीं। सालों-साल लोग गर्भ में पड़े रह सकते थे। पिता का सहयोग मिल जाए तो कुम्भ यानी घड़ा भी माँ का काम कर सकता था. जलकर ख़ाक हो जाने के बाद भी लोग जीवित हो सकते थे और बिना शरीर के लोगों के मन में रहते हुए अमर बने रह सकते थे।

सूर्य और चंद्रमा को निगलने-उगलने वाले तो मौजूद थे ही–आज भी हैं, बस किसी कारणवश यह चमत्कारी काम बंद कर दिए हैं। एक तबके के पात्र जो अमूमन किसी अन्य लोक में रहते थे, अमर तो होते ही थे, चिर-युवा भी रहते थे, बीमार तो कभी पड़ ही नहीं सकते थे। मौज-मस्ती से ज़िंदगी जीते चले जाते थे। आधुनिक वैज्ञानिक अभी तक उस लोक का पता नहीं लगा पाए जहाँ वे धूमधाम से अब भी रह रहे होंगे। जी हाँ, उनकी स्त्रियाँ भी वैसे ही होती थीं।

उनकी एक ख़ास वर्ग की स्त्रियाँ अप्सरा कहलाती थीं। पृथ्वी के जिद्दी तपस्वियों की तपस्या भंग करने के पुनीत काम के लिए उनका “सदुपयोग” होता था. इन अप्सराओं का पृथ्वी पर आना-जाना लगा रहता था। लेकिन जब भी यहाँ आती थीं, कोई न कोई धमाल ज़रूर होता था। बड़े बड़े तपस्वी पटरा हो जाते थे। वृद्ध और भोग विलास में असमर्थ होने पर लोग पुत्र से उसका यौवन और बार्धक्य की अदला बदली कर लेते थे और हज़ार हजार साल तक जमकर यौवन का आनंद लेते थे।

इधर के लोग भी कभी-कभी सशरीर उस लोक की चहलकदमी कर आते थे. कुछ प्रतापी राजा लड़ाई वगैरह में उस लोकवालों की मदद करने भी पहुँच जाते थे। ‘नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्‌’ की स्वीकारोक्ति के साथ तुलसी बाबा भी इन पौराणिक कथाओं को अक्षरस: सत्य मानते थे जब कि कलिकाल उनके समय में अपने पैर पसार चुका था। लेकिन अब, हो न हो, दिन प्रतिदिन “खराते” कलिकाल के असर से, लोगों की बुद्धि भ्रष्ट हो गई है, तो इन कथाओं को फ़ैंटेसी वगैरह मानने लगे हैं। अभी क्या, अभी तो कलियुग और खराएगा. चार लाख बत्तीस हज़ार साल की आयु में कुल जमा पाँच हज़ार से कुछ ही ज़्यादा साल बीते हैं। अभी जाने क्या-क्या होना है ! और आप लोग हैं कि पहले अच्छे दिन की आस लगाए बैठे थे, फिर कुछ लोगों के कहने पर दिव्यांतर की आस लगा बैठे।

देखते हैं, कौन माई का लाल कलिकाल के प्रभाव को काटकर आप लोगों के जीवन में दिव्यांतर ला देता है ! आप लोग जहाँ हैं, जैसे हैं, वैसे ही बने रहें, जो, जैसे कर रहे हैं, उसे वैसे ही करते रहें और आपके जीवन का दिव्यांतर हो जाए ! यह तो किसी (पुराण नाम्ना) उपन्यास के चमत्कार से भी बढ़कर चमत्कार होगा। आज मुझे फ़ेसबुक पर वाइरल हो रहे एक वीडियो से देश के मौजूदा शीर्ष कवि (एक ही हो सकता है) का व्याख्यान सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वे इस देश के वैज्ञानिक पुरखों को फटकार लगा रहे थे, पानी पी-पीकर कोस रहे थे, गरिया रहे थे. लगे हाथ श्रोताओं की भी ऐसी-तैसी कर रहे थे।

और श्रोता निहाल हो रहे थे. उन्होंने फटकारा कि महाभारत काल में लाइव प्रसारण की जो पद्धति विकसित हो गई थी, जिसका प्रयोग करके संजय ने अंधे धृतराष्ट्र के सामने महाभारत की रनिंग कमेंट्री दी थी, हमारे वैज्ञानिक पुरखों ने उसे सँजोकर क्यों नहीं रखा ? फिर उन्होंने कालिदास के मेघदूत का हवाला दिया जिससे बादल द्वारा संदेश भेजने की तकनीक की तस्दीक़ होती है. उन्होंने लताड़ लगाई कि उस तकनीक के सहारे मोबाइल द्वारा लिखित, श्रव्य और दृश्य संदेश भेजने की पद्धति इस देश में विकसित क्यों नहीं हुई। उन्होंने आगे कहा, आकाशवाणी, जो प्राचीन काल में सम्प्रेषण की सामान्य प्रणाली थी, बाद में रहस्यमय बनकर लुप्त कैसे हो गई ? फिर उन्होंने बताया कि आजकल लम्बी यात्राओं के लिए विदेशों में हद से हद तीन तल के हवाई जहाज बनते हैं—नीचे के तल पर सामान, ऊपर के दो तल पर मुसाफ़िर–लेकिन लंका से जिस पुष्पक विमान से राम अयोध्या आए थे,

उसमें सात तल थे और सीता, लक्ष्मण व विभीषण के अलावा वानरों की एक अक्षौहिणी सेना भी उसी में सवार थी. उन्होंने फटकारा कि विमान-निर्माण की उस विकसित पद्धति को और विकसित करने के बजाए, इस देश के वैज्ञानिकों ने उसे लुप्त क्यों हो जाने दिया. उन्हीं के मुखारविंद से मुझे मालूम हुआ कि किसी व्यक्ति के अंतर्धान होने की एक वैज्ञानिक पद्धति है जो पहले हमारे देश में आम प्रचलन में थी, फिर हमारे वैज्ञानिकों की नालायकी से लुप्त हो गई, आजकल अमेरिकी वैज्ञानिक उसी का कुछ सुराग़ पाकर शोध में लगे हुए हैं।

शीर्ष कवि को अपार दु:ख था (जो वे गरज-गरजकर व्यक्त कर रहे थे) कि इस देश के वैज्ञानिक क्या कर रहे हैं, एक खोई हुई तकनीक को पुनर्जीवित तक नहीं कर सकते ! उनका व्याख्यान सुनने के बाद से मैं शर्म से पानी पानी हो गया हूँ. अपने पुरखों के लिए, पुरखे वैज्ञानिकों के लिए, आज के वैज्ञानिकों के लिए. और आप लोगों के लिए भी. आप लोग मिसाइल जैसी छोटी-मोटी चीज़ को लेकर इस क़दर ख़ुश हो जाते हैं कि मौक़े-बेमौक़े उसका इज़हार करने से बाज नहीं आते। और ब्रह्मास्त्र जैसी बड़ी-बड़ी चीज़ें भुलाए बैठे हैं।

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