तुलसीदास निराला की सूक्ष्म और जटिल कलाकारिता का अन्तिम सोपान है…
तुलसीदास निराला की सूक्ष्म और जटिल कलाकारिता का अन्तिम सोपान है। इसका प्रारंभ सूर्यास्त से होता है और अन्त सूर्योदय से , जहाँ शारदा कमल दलों के खोलती हुई और लक्ष्मी जल में तैरती हुई उद्भाषित होती है। प्रकृति जहाँ रवि के पुष्कल रेखाओं से जगमगा उठती है। सूर्यास्त और सूर्योदय के इन्हीं दो बिन्दुओं …
तुलसीदास निराला की सूक्ष्म और जटिल कलाकारिता का अन्तिम सोपान है। इसका प्रारंभ सूर्यास्त से होता है और अन्त सूर्योदय से , जहाँ शारदा कमल दलों के खोलती हुई और लक्ष्मी जल में तैरती हुई उद्भाषित होती है। प्रकृति जहाँ रवि के पुष्कल रेखाओं से जगमगा उठती है। सूर्यास्त और सूर्योदय के इन्हीं दो बिन्दुओं पर यह प्रलम्ब रचना फैली हुई है।
एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु तक पहुंचने के लिए प्रकृति के माध्यम से भारतीय संस्कृति के पतन का सांगोपांग वर्णन , प्रकृति का दैन्य निवेदन, जागरण संदेश , नारी मोह और नारी की शक्ति से मोह और अज्ञान का विनाश तथा प्रेरणामयी दिव्य दृष्टि से आनंद और ज्ञानोदय आदि अनेक मानसिक घटनाओं के घात – प्रत्याघातों से कवि को जूझना पड़ा है।
ये नाटकीय वैचित्र्य की सिद्धियां अन्तः – संघर्ष के तनाव को तब तक समाप्त नहीं कर पाती जब तक तुलसी का मोहान्धकार सम्पूर्ण रूप से नष्ट नहीं हो जाता । आनन्द से आप्लावित हो जाने पर उनकी वाणी वीणा – सी झंकृत हो उठती है । उनकी कला राष्ट्र की बिखरी हुई चेतना को एक सूत्र में गुंथने को समर्थ हो जाती है और तनाव समाप्त हो जाता है।
राष्ट्र को समझने के लिए प्रकृति ही ज्ञानदात्री है , नारी रूप में वही गुरु है , क्योंकि वह निष्पक्ष है , निराला के अनुसार प्रकृति दर्पण है । इस विचार को निराला ने अन्यत्र भी व्यक्त किया है । जिस समय देश पराधीनता के पिंजड़े में वन विहंग की तरह बन्द कर दिया गया है । उस समय से लेकर आज तक उसकी अवस्था का दर्शन उससे सहानुभूति आदि जितने काम हैं , वह इनकी सीमा कवि कर्म की परिधि के भीतर ही समझी जाती है , क्योंकि प्रकृति का यथार्थ अध्ययन करने वाला कवि ही यदि देश की दशा का वर्णन नहीं करेगा तो फिर कौन करेगा।
इसी विचार से निराला ने तुलसीदास जी के जन्म की चमत्कारिक , घटनाओं तथा जीवन से संबंधित और अन्य स्थूल घटनाओं को न लेकर प्रकृति का ही बिम्बांकन किया है । प्रकृति के सूक्ष्म निरीक्षण का बीजारोपण यहाँ चित्रकूट पर्यटन से होता है । तुलसी प्रकृति के माध्यम से देश – काल को समझ पाते हैं । उन्हें प्रकृति से जागरण सन्देश मिलता है-
भूले थे अब तक बन्धु प्रमन ।
इस जग के मग के मुक्त प्राण
गाओ – विहंग : सद्ध्वनित गान
सत्य को समझने के लिए प्रकृति के समान निष्पक्ष होना आवश्यक है प्रकृति की वीणा को सुनने वाला मुक्त प्राण कवि ही हो सकता है । चित्रकूट की सारी घटनाएँ कवि के अन्तर्मन पर घटती है । तुलसी के साथ वहाँ अन्य भी युवक हैं , पर प्रकृति का सन्देश उन्हें सुनाई नहीं पड़ता। क्योंकि उनमें राष्ट्र को समझने के लिए तुलसी जैसे शास्त्र समधीत सामर्थ्य या संस्कार नहीं है।
निराला की यह अप्रतिम कला है कि पहले तो वे पृष्ठभूमि तैयार करते हैं फिर अपनी कोई बात शुरू करते हैं। शिक्षा और काव्यशास्त्रों के संस्कारों के बाद भी यहाँ तुलसी प्रबुद्ध नहीं हो पाते , क्योंकि प्रकृति में विरोधात्मक प्रवृत्तियाँ होती है। यदि वह मनुष्य के लिए सहायक है तो बाधक भी। बाधक उनके लिए जो उसके विरुद्ध आचरण करते हैं। यहाँ विरोधी गुणों को निराला ने अत्यन्त आकर्षक और रमणीय रूपों में प्रस्तुत किया है।
- डाॅ. बलदेव
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