मथुरा: ग्रीष्म निकुंज महोत्सव में वृन्दावन का कोना कोना हुआ कृष्णमय, हर ढाई वर्ष के बाद होती है अनूठी सेवा

मथुरा: ग्रीष्म निकुंज महोत्सव में वृन्दावन का कोना कोना हुआ कृष्णमय, हर ढाई वर्ष के बाद होती है अनूठी सेवा

मथुरा। ब्रज के सप्त देवालयों में मशहूर राधारमण मन्दिर में चल रहे ग्रीष्म निकुंज महोत्सव में ऋतु के अनुरूप चल रही ठाकुर की अनूठी सेवा से वृन्दावन का कोना कोना कृष्णमय हो उठा है। यह अनूठी सेवा हर ढाई वर्ष के बाद होती है। मन्दिर के सेवायत आचार्य एवं ब्रज संस्कृति की विभूति आचार्य श्रीवत्स …

मथुरा। ब्रज के सप्त देवालयों में मशहूर राधारमण मन्दिर में चल रहे ग्रीष्म निकुंज महोत्सव में ऋतु के अनुरूप चल रही ठाकुर की अनूठी सेवा से वृन्दावन का कोना कोना कृष्णमय हो उठा है। यह अनूठी सेवा हर ढाई वर्ष के बाद होती है। मन्दिर के सेवायत आचार्य एवं ब्रज संस्कृति की विभूति आचार्य श्रीवत्स गोस्वामी ने बताया कि इस सेवा के पीछे मन्दिर में इस अवसर पर आने वाले भक्त का कल्याण प्रमुख है।

कहा जाता है ठाकुर तभी प्रसन्न होते हैं जब कोई घट घट में भगवान देखता है। मन्दिर के वर्तमान सेवायत आचार्य ने घट घट में भगवान देखा इसीलिए मन्दिर आने वाले भक्त को ठाकुर का प्रसाद अवश्य मिले इसकी व्यवस्था की गई है। ब्रज के सप्त देवालयों में राधारमण मन्दिर का विगृह स्वयं प्राकट्य है तथा चैतन्य महाप्रभु के शिष्य गोपाल भट्ट गोस्वामी की भगवत निष्ठा से प्रभावित होकर ही नेपाल की गण्डकी नदी में शालिग्राम के रूप में ठाकुर प्रकट हुए थे ।

नदी में स्नान के दौरान शालिग्राम को ग्रहण करने के लिए जब आकाशवाणी हुई थी तो उन्होंने उन्हें स्वीकार किया था तथा बाद में उनकी निष्ठा से प्रभावित होकर शालिग्राम विग्रह के रूप में प्रकट हुए। ठाकुर का श्रंगार करने में प्रवीण होने के कारण गोपाल भट्ट स्वामी गोविन्ददेव, गोपीनाथ और मदनमोहन मन्दिर में नित्य ठाकुर का श्रंगार करने जाते थे, साथ ही राधारमण मन्दिर के श्रीविग्रह का भी श्रंगार करते थे।जब वे बहुत अधिक वृद्ध हो गए तो उनके लिए अन्य मन्दिरों मे जाना मुश्किल हो गया।

एक शाम उन्होंने ठाकुर से प्रार्थना की कि तीनो विगृह के रूप में वे उन्हें सेवा का अवसर दें। कहते हैं कि सच्चे भक्त को भगवान कभी निराश नही करते और ऐसा ही गोस्वामी के साथ हुआ। जब अगले दिन वे ठाकुर का श्रंगार करने लगे तो उनकी अचानक अश्रु धारा बह निकली क्योकि ठाकुर ने उनकी विनती स्वीकार कर ली थी और उन्होने अपने अन्दर तीनो मन्दिरों के विगृह समेट लिया था। उनका मुख गोविन्ददेव , वक्षस्थल गोपीनाथ की तरह का एवं चरण मदनमोहन जी की तरह श्री राधारमण के विगृह में समाहित हो गए थे।

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