बरेली: दिवाली के दीये बनाने में लगा पूरा परिवार, फिर भी नहीं रोशन हो रहा कुम्हारों का त्योहार

बरेली: दिवाली के दीये बनाने में लगा पूरा परिवार, फिर भी नहीं रोशन हो रहा कुम्हारों का त्योहार

विकास यादव, बरेली, अमृत विचार। आधुनिकता के युग में हम लोग अपनी सभ्यता को भूलते जा रहे हैं। जिसका असर अब हमारे पर्वों पर भी नजर आने लगा है। दिवाली के पर्व को रोशनी का पर्व कहा जाता है। लेकिन इस पर्व में अब झालरों ने अपनी जगह बना ली है। जिस कारण दीये की …

विकास यादव, बरेली, अमृत विचार। आधुनिकता के युग में हम लोग अपनी सभ्यता को भूलते जा रहे हैं। जिसका असर अब हमारे पर्वों पर भी नजर आने लगा है। दिवाली के पर्व को रोशनी का पर्व कहा जाता है। लेकिन इस पर्व में अब झालरों ने अपनी जगह बना ली है। जिस कारण दीये की रोशनी कम होती जा रही है और इसका असर अब कुम्हारों के इस पुश्तैनी काम पर भी नजर आने लगा है।
सरकार ने इनके काम को बढ़ावा देने के लिए इलेक्ट्रॉनिक चाक भी दे रखे हैं। लेकिन उसके बाद भी इससे औसत नहीं निकल रहा है।वहीं पहले के मुकाबले दिवाली पर दीये की मांग भी कम हो गई है।

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एक समय था जब साहू राम स्वरूप स्कूल के पीछे बाग अहमद अली तालाब में कई घरों में दीये बनाने का काम किया जाता था। लेकिन जैसे जैसे झालरों, रंगीन लाइटों का क्रेज बढ़ा है। लोगों का इस काम से गुजारा नहीं हुआ तो उन लोगों ने अन्य काम शुरू कर दिए और अपने इस पुश्तैनी काम को बंद कर दिया। केवल चार-पांच परिवार ही दीये बनाने का काम कर रहे हैं। जब इस बारे में चालीस साल से दीये बनाने वाले हरी राम से बात की गई तो उन्होंने बताया बताया उन्हें आसानी से मिट्टी नहीं मिलती।

दीये बनाने के बाद उनको पकाया जाता है। पहले दीये बरेली से अन्य जनपदों के लिए भी भेजे जाते थे। लेकिन अब ऐसा नहीं है। लोगों में दीये का क्रेज कम हो गया है। दीये बनाने वाले दीपक ने बताया पहले लोग इस काम से अपने परिवार का गुजारा करते थे। लेकिन अब कोई काम को सीखना तक नहीं चाहता है। शहर का काम बहुत हल्का हो गया है। परेशानियां काफी हैं। पहले से काफी अंतर आया है। कारोबार दीवाली पर कुछ चलता है। साल भर वह मद्दे से गुजरता है। दिवाली के दीये हल्द्वानी, नैनीनात और दिल्ली जाते हैं। परिवार के सब लोग मिलकर दीये को बनाते हैं। तब भी उतना मुनाफा नहीं हो पाता है। केवल लागत ही निकल कर आ पाती है।

मिट्टी मिलने में होती है दिक्कत
दीये बनाने के लिए उन लोगों को पहले लाल फाटक से मिट्टी मिल जाती थी। वहां की चिकनी मिट्टी दीये बनाने के लिए गुणवत्ता वाली होती थी। इस समय दोहरा से मिट्टी आ रही है जो इतनी अच्छी नहीं है।

दाल के कुल्हड़ और चाय के गिलास से जगी उम्मीद
एक बार फिर से मिट्टी के कुल्हड़, गिलासों का क्रेज बढ़ गया है। लोगों को अब कुल्हड़ वाली चाय पसंद आने लगी है। जिस कारण अब कुम्हारों को कुछ आस जगने लगी है। वह साल भर दाल और चाय वालों के लिए कुल्हड़ और गिलास बनाते है‍ं। जिससे उनका परिवार चल रहा है।

मिट्टी के दीये और करे का है पूजा में महत्व
अभी भी दीवाली की पूजा के लिए दीवट, दीये, करे और मिट्टी के मंदिर और बर्तन का उपयोग ज्यादा किया जाता है। मिट्टी के इन सामानों के न होने से पूजा अधूरी मानी जाती है। इसलिए लोग इनको दिवाली पर जरूर खरीदते हैं।

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