जासूसी कांड की जांच

पेगासस जासूसी मुद्दे पर देश में राजनीतिक विवाद शुरू हो गया है। राज्यसभा सदस्य जॉन ब्रिटास का कहना है कि जासूसी का अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर गहरा असर पड़ेगा। उन्होंने पेगासस स्पाईवेयर के जरिए जासूसी करने के आरोपों के संबंध में अदालत की निगरानी में जांच कराए जाने का अनुरोध शीर्ष अदालत से किया है। …
पेगासस जासूसी मुद्दे पर देश में राजनीतिक विवाद शुरू हो गया है। राज्यसभा सदस्य जॉन ब्रिटास का कहना है कि जासूसी का अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर गहरा असर पड़ेगा। उन्होंने पेगासस स्पाईवेयर के जरिए जासूसी करने के आरोपों के संबंध में अदालत की निगरानी में जांच कराए जाने का अनुरोध शीर्ष अदालत से किया है। उच्चतम न्यायालय में जनहित याचिका दाखिल करने वाले माकपा के सदस्य ब्रिटास ने रविवार को यह भी दावा किया कि आरोपों से दो निष्कर्ष निकलते हैं, या तो जासूसी सरकार द्वारा या फिर किसी विदेशी द्वारा की गई। यदि किसी विदेशी एजेंसी द्वारा जासूसी की गई है तो यह बाहरी हस्तक्षेप का मामला है और इससे गंभीरता से निपटने की आवश्यकता है। इससे पहले अधिवक्ता एमएल शर्मा ने याचिका दायर कर मांग की थी कि न्यायालय की निगरानी में एसआईटी से जांच कराई जाए।
संसद में भी सरकार ने स्पाईवेयर द्वारा जासूसी से न तो इनकार किया और न ही स्वीकार किया हैं। सरकार ने कहा था कि जब देश में नियंत्रण एवं निगरानी की व्यवस्था पहले से है तब अनधिकृत व्यक्ति द्वारा अवैध तरीके से निगरानी संभव नहीं है। गौरततब है कि पिछले दिनों मीडिया में आईं खबरों में दावा किया गया था कि पेगासस स्पाईवेयर का इस्तेमाल मंत्रियों, नेताओं, सरकारी अधिकारियों और पत्रकारों समेत करीब 300 भारतीयों की निगरानी करने के लिए किया गया। साइबर सुरक्षा विशेषज्ञों ने यह पुष्टि की है कि निशाना बनाए गए जिन सात लोगों ने अपने फोन की जांच की अनुमति दी उनके फोन में स्पाईवेयर मिला।
सरकार ने इसे नकार दिया है। परंतु इससे और कई सवाल उठे हैं। स्पाईवेयर बनाने वाली इजरायली कंपनी एनएसओ का दावा है कि वह केवल सरकारी एजेंसियों को ही स्पाईवेयर बेचती है। यदि इस मामले में भारत सरकार एनएसओ की ग्राहक नहीं है तो क्या कोई और ऐसी संस्था है, जिसके पास इतने संसाधन और इतना व्यापक भौतिक ढांचा है कि उसने देश में कई लोगों को इस तरह निगरानी के लिए चुना और निशाने पर लिया। अधिकांश लोकतांत्रिक देशों में डिजिटल निगरानी के अनुरोध दर्ज किए जाते हैं और इन्हें कमेटी स्तर पर उचित ठहराना होता है। यानी गोपनीय ही सही उन पर बहस होती है। यदि राजनेता, अफसरशाह अथवा वर्तमान न्यायाधीशों को निशाना बनाया जाता है तो ऐसे अनुरोध को संसदीय समिति के समक्ष उचित ठहराना होता है जो पूरी निगरानी प्रक्रिया पर नजर रखती है और जो संसदीय विशेषाधिकर को भंग करने जैसे सवालों पर विचार करने में सक्षम होती है। यह मामला ऐसे संस्थागत बचाव तत्काल बनाने की जरूरत पर जोर देता है।