असाधारण मनीषी अभिनवगुप्त

असाधारण मनीषी अभिनवगुप्त

अभिनवगुप्त के एक पुरखे अत्रिगुप्त आठवीं सदी के मध्य में कन्नौज के राजदरबार से आदरपूर्वक कश्मीर लाये गए थे जहाँ के तत्कालीन राजा ललितादित्य ने उनके वास्ते वितस्ता अर्थात झेलम नदी के किनारे सितांशुमौलि अर्थात भगवान शिव के मंदिर के सामने एक शानदार आवास बना कर दिया. करीब दो सौ सालों के बाद इस खानदान …

अभिनवगुप्त के एक पुरखे अत्रिगुप्त आठवीं सदी के मध्य में कन्नौज के राजदरबार से आदरपूर्वक कश्मीर लाये गए थे जहाँ के तत्कालीन राजा ललितादित्य ने उनके वास्ते वितस्ता अर्थात झेलम नदी के किनारे सितांशुमौलि अर्थात भगवान शिव के मंदिर के सामने एक शानदार आवास बना कर दिया. करीब दो सौ सालों के बाद इस खानदान में नरसिंहगुप्त और उनकी पत्नी विमलकला के घर अभिनवगुप्त ने जन्म लिया. विद्वानों के इस शिव-भक्त कुटुंब में ज्ञान और विद्या हासिल करना धर्म माना जाता था. इस लिहाज़ से अभिनवगुप्त के पहले गुरु उनके वैयाकरण पिता बने.

अभिनवगुप्त बच्चे ही थे जब उनकी माता का असमय देहांत हो गया. इस त्रासदी से विरक्त और दुखी होकर कुछ ही समय बाद उनके पिता ने संन्यास ले लिया. बालक अभिनवगुप्त अकेले रह गए.हम कभी नहीं जान सकेंगे उस समय उस बालक के मन पर क्या बीती होगी लेकिन वर्षों बाद रची गई अपनी एक किताब में अभिनवगुप्त ने लिखा है कि इन घटनाओं ने उनके चित्त को संसार की आकर्षणों से बेज़ार कर दिया और उन्होंने बहुत छोटी उम्र में फैसला किया कि वे शिव की भक्ति के मार्ग पर चलते हुए आजीवन अविवाहित रहेंगे और ज्ञान का संधान करेंगे.

पिता से व्याकरण के शुरुआती पाठ सीख जाने के वाद अभिनवगुप्त ने अनेक गुरुओं से अनेक तरह की शिक्षा ग्रहण की और अपने ज्ञान के क्षितिज को इतना चौड़ा बनाया जिसकी आज केवल कल्पना की जा सकती है. उन्होंने द्वैततंत्र, शैव दर्शन, ध्वनि विज्ञान, नाट्यशास्त्र, ब्रह्मविद्या, क्रम दर्शन, त्रिक दर्शन, रंगमंच, तर्कशास्त्र और संगीत जैसे विविध क्षेत्रों में उस्तादी हासिल करने के लिए करीब डेढ़ दर्जन अध्यापकों के आश्रमों की धूल छानी.

असाधारण मनीषा से संभूत हो चुकने के बाद इस आचार्य ने अपने करीब छियासठ साल के जीवन में चालीस से अधिक ग्रंथों का निर्माण किया. उनके ज्ञान के आलोक में समाज को अनेक पुराने ग्रंथों को देखने की नई दृष्टि मिली. उनके जीनियस ने इतने सारे अलग-अलग विषयों को स्पर्श किया कि हैरानी होती है.

शैव दर्शन और त्रिक विचारधारा समेत दर्शनशास्त्र पर लिखी गई अनेक पुस्तकों के अलावा उन्होंने काव्यशास्त्र, नाट्यशास्त्र और सौंदर्यशास्त्र पर अनेक मौलिक ग्रन्थ भी तैयार किये. भरत मुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ आनंदवर्धन के ‘ध्वन्यालोक’ जैसे बड़े ग्रंथों की टीका उन्होंने की. भाषा का विज्ञान और व्याकरण की जटिल गणित पर भी उनकी लेखनी चली.

उनकी पुस्तकों की विषयवस्तु के दायरे में संगीत, कविता और कला के जो आयाम आए हैं उन्होंने तत्कालीन सौंदर्यशास्त्र यानी एस्थेटिक्स को बिलकुल ताज़गी से भर दिया. उसके अलावा तर्कशास्त्र की राह पर चलते हुए उन्होंने अनेक स्थापित दार्शनिक मानकों की धज्जियां भी उड़ाईं.

एक मौलिक विचारक की तरह उन्होंने उस सामाजिक-धार्मिक विश्वास पर प्रहार भी किया जो जाति और लिंग के मतभेद को आध्यात्मिक खोज के लिए महत्वपूर्ण मानता था. उन्होंने उन दार्शनिक सिद्धांतों की बखिया उधेड़ कर रख दी जिनमें अध्यात्म के रास्ते पर चलने के लिए ऐसे कड़े कानून बना रखे थे कि केवल कुछ चुने हुए लोग ही उस राह पर चल सकने लायक माने जाते थे. वे इस विचार के भी खिलाफ़ थे कि ज्ञान की प्राप्ति के लिए आपको संसार का त्याग करना ज़रूरी होता है और यह भी घर-गृहस्थी में फंस चुके आदमी के लिए ज्ञान के दरवाजे तभी खुल सकते हैं जब वह बूढ़ा हो गया हो और उसके स्वास्थ्य का भूसा भर चुका हो.

अपने ग्रन्थ ‘पतंजलिपरमार्थसार’ के अंतिम हिस्से में वे कहते हैं, “ऐ अनुयायियो, महा भैरव के इस पथ पर जो भी सच्ची मुराद के साथ एक कदम बढ़ा चुका है, वह मुराद हल्की हो या गहन, वह व्यक्ति ब्राह्मण हो या स्वच्छक या दलित या और कोई, वह परा-भैरव से एकाकार हो जाता है.” मुझे यकीन है आप में से बहुत सारे लोगों ने उनका नाम भी नहीं सुना होगा. एक माह पहले तक मैंने भी नहीं सुना था. भला हो देहरादून में रहने वाले इसी आचार्य के हमनाम मेरे एक अनन्य मित्र का जिन्होंने मुझे भारतीय इतिहास के इस असाधारण जीनियस के नाम से परिचित कराया.

मेरे एक स्कूली सहपाठी का नाम मम्मट द्विवेदी था. हमें इतना ही पता था कि उसका नाम किसी विद्वान के नाम पर रखा गया था. यह और बात थी कि हम उसके मोटे होने का मजाक बनाने में खुश रहते थे और समझते थे कि मम्मट नाम इसलिए रखा गया होगा कि उसके व्यक्तित्व पर फबता था. बहुत बाद में पता लगा कि मम्मट कश्मीर में पैदा हुए संस्कृत के उद्भट विद्वान थे.

इसी प्रवृत्ति के चलते अभिनवगुप्त के बारे में अपनी अज्ञानता से मैं बहुत ज्यादा चकित नहीं हुआ. अभिनवगुप्त के बारे में थोड़ा अध्ययन करने के बाद एक बात स्पष्ट हुई. आज से हज़ार वर्ष पहले कश्मीर की आश्चर्यजनक रूप से संपन्न बौद्धिक परम्परा इस देश का नेतृत्व कर रही थी. उस समय का कश्मीर ज्ञान, विचार, कला, संस्कृति, दर्शन और संगीत के मामले में भारत के चरमोत्कर्ष का केंद्र रहा होगा. हिन्दू और बौद्ध दर्शन की रोशनी इसी के दर्रों से होती हुई संसार भर में पहुँची होगी.

भारतीय ज्ञान की परम्परा में आदि शंकराचार्य से लेकर वल्लभ, कबीर से लेकर तुलसी तक दर्जनों नाम लगातार लिए जाते रहे हैं. लेकिन हैरानी की बात है इस वृहद, तेजस्वी मनीषा में अभिनवगुप्त कहीं भी क्यों चमकते-दमकते नहीं दिखाई देते. ऐसा क्यों, कब और कैसे हुआ होगा कि कश्मीर की इतनी उन्नत इंटेलेक्चुअल संपदा धर्म, युद्ध और राजनीति की भेंट चढ़ गई. काम बताता है कि कश्मीर के इस भुला दिए गए आचार्य का जीनियस लियोनार्दो दा विंची से किसी भी कीमत पर कम नहीं था.

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अशोक पांडे