प्रकृति प्रदत्त जो भी है…

प्रकृति प्रदत्त जो भी है…

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।। इस संसार में जो कुछ भी विद्यमान है सब परम तत्व से आप्यायित है। इसलिए त्यागपूर्वक भोग करो। किसी के धन का लोभ मत करो (पूंजीवादी व्याख्या)। धन किसका है, अर्थात्‌ किसी का नहीं, इसलिए उसका लोभ मत करो (समाजवादी व्याख्या)।] सारा दारोमदार ‘कस्यस्विद्‌’ …

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।
इस संसार में जो कुछ भी विद्यमान है सब परम तत्व से आप्यायित है। इसलिए त्यागपूर्वक भोग करो। किसी के धन का लोभ मत करो (पूंजीवादी व्याख्या)। धन किसका है, अर्थात्‌ किसी का नहीं, इसलिए उसका लोभ मत करो (समाजवादी व्याख्या)।]

सारा दारोमदार ‘कस्यस्विद्‌’ में स्विद्‌ के अर्थ पर है।
स्विद्‌ अव्यय है। इसका प्रयोग हमेशा संदेह के अर्थ में या प्रश्नवाचक अर्थ में होता है। इसलिए कस्यस्विद्‌ धनम्‌ का पूंजीवादी अर्थ ‘किसी के धन का’ हो ही नहीं सकता। कस्यस्विद्‌ का एकमात्र अर्थ ‘धन किसका है?’ ही हो सकता है। संदेहात्मक या प्रश्नात्मक। और इस संदेह का एक ही समाधान, इस प्रश्न का एक ही उत्तर हो सकता है—धन किसी का नहीं। मंत्र के पूर्वार्द्ध से इसी अर्थ की संगति बैठती है। संसार का सब कुछ परम तत्व से आप्यायित है। धन भी। परम तत्व किसी की व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं हो सकता। परम शब्द में ही सार्वभौमिकता निहित है।

चूंकि धन सबका है, उसके भोग पर किसी का एकाधिकार नहीं। कुछ भी किसी का निजी नहीं। इसलिए त्यागपूर्वक ही भोग का नैतिक आधार बनता है। इसके लिए क्रांति नहीं, ऐसा नैतिक बोध जरूरी है जिसका एक तात्विक आधार भी है। मार्क्सवाद में वर्गविहीन समाज के लक्षण के तौर पर जो कहा गया—सबसे क्षमतानुसार और सबको आवश्यकतानुसार -उपरोक्त औपनिषद मंत्र के तात्विक अर्थ को ही भिन्न शब्दों में व्यक्त करता है।वैज्ञानिक या विवेकशील दृष्टि से देखने पर पृथ्वी किसकी है, इसके खनिज पदार्थ किसके हैं, वनस्पतियां किसकी हैं, जल किसका है ? इन सब के संयोग से या संयोग और श्रम के मिश्रण से जो भोग्य पदार्थ- अन्न और अन्य उपभोग-सामग्री उत्पन्न होती है, वह किसी व्यक्ति की नहीं, सब की है।

किंतु मार्क्सवाद और औपनिषद मंत्र के प्रतिपाद्य में मूलभूत अंतर है। मार्क्सवाद एक आदिम साम्यवादी व्यवस्था की कल्पना करता है जिसमें निजी सम्पत्ति की अवधारणा ही नहीं थी। फिर द्वंद्वात्मक विकास से पूंजीवादी व्यवस्था तक आता है। पूंजीवादी व्यवस्था के ध्वंस के लिए हिंसक क्रांति से सर्वहारा की तानाशाही के अंतरिम चरण की अवधारणा देता है। इस अंतरिम चरण में उत्पादन के साधनों के सामाजीकरण द्वारा साम्यवाद यानी वर्गविहीन समाज की स्थापना का स्वप्न देखता है जो आदिम साम्यवाद जैसा ही होगा, बस तकनीकी विकास से औद्योगिक उत्पादन के अर्थ में भिन्न होगा।

हो सकता है, साम्यवाद लोगों को क्रांति के लिए उकसाने हेतु द्वंद्ववाद और इतिहास के द्वंद्वात्मक विकास की अपरिहार्यता का प्रमेय रचता हो, जिसके अनुसार पूंजीवाद का विनाश और वर्गविहीन समाज की स्थापना इतिहास की अनिवार्य परिणति है, जो पूंजीवादी व्यवस्था में निहित अंतर्विरोधों का परिणाम है। क्रांति इस प्रक्रिया को महज धक्का देकर आगे बढ़ाने का एक कदम है। बहुत मासूम अवधारणा नहीं है?

खैर, इसे छोड़िए।
मार्क्सवादी द्वंद्ववाद और उसके आधार पर इतिहास की व्याख्या, सम्पत्ति के साधनों के स्वामी वर्ग द्वारा सम्पत्तिहीन वर्ग का शोषण है।
एक मूल प्रमेय है जो हर व्यवस्था में अंतर्विरोध के बीज उत्पन्न करता है। उस अन्तर्विरोध से व्यवस्था के परिवर्तन और अपेक्षाकृत अधिक उन्नत व्यवस्था का मार्ग प्रशस्त होता है। और यह होता है इतिहास की अनिवार्य गतिशीलता और गति की द्वंद्वात्मक प्रकृति के तहत। वर्गविहीन समाज स्थापित होने पर, वर्गों के न होने से अंतर्विरोध समाप्त हो जाएंगे, इससे व्यवस्था में कोई और परिवर्तन नहीं होगा, केवल तकनीकी प्रगति से उत्पादकता में वृद्धि होती रहेगी।

सवाल है ऐसा कैसे होगा ? जब समाज आदिम साम्यवाद की अवस्था में था तो उसमें वर्ग नहीं थे। तो उस (आदिम) साम्यवादी समाज में अंतर्विरोध कहाँ से आ गए? कि निजी सम्पत्ति का उदय हुआ और उसके दूरगामी परिणाम में सामंतवादी व्यवस्था आ गई? यदि आदिम साम्यवाद में अंतर्विरोध अस्तित्व में आ सकते थे तो तकनीकी उद्योग और तकनीकी उत्पादन से लैस विकसित साम्यवाद में क्यों नहीं आ सकते ? शायद मार्क्सवादी विद्वानों के पास इसका कोई समुचित उत्तर हो। मेरे पास तो नहीं है।

उपरोक्त औपनिषद समाजवाद में न अंतर्विरोध का कोई अवसर है, न द्वंद्ववाद की आवश्यकता। वह तो तात्विक सत्य पर आधारित एक नैतिक बोध है। यदि मनुष्य इस नैतिक बोध से नियमित होगा तो समाज ठीकठाक चलेगा। नहीं होगा, तो विकृतियां आएंगी, अंतर्विरोध भी पैदा होंगे। एक सीधी-सी बात है जो मार्क्स के हजारों साल पहले किसी ऋषि (मंत्रकर्ता) के दिमाग में आ गई।

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