बरेली: इस ब्रश ने न जाने कितनों को बनाया है सियासत का सूरमा

मोनिस खान, बरेली, अमृत विचार। किसी पेंटर की सधी हुई ब्रश ही उसके अंदर की कलाकारी बयान करती है। मगर अलग-अलग नंबर के ब्रश और उनको चलाने का अंदाज मौजूदा समय में गुजरे जमाने की बात हो चुकी हैं। एक जमाना था जब चुनाव सिर पर आते ही इन पेंटर्स की ब्रश रफ्तार पकड़ लेतीं …
मोनिस खान, बरेली, अमृत विचार। किसी पेंटर की सधी हुई ब्रश ही उसके अंदर की कलाकारी बयान करती है। मगर अलग-अलग नंबर के ब्रश और उनको चलाने का अंदाज मौजूदा समय में गुजरे जमाने की बात हो चुकी हैं। एक जमाना था जब चुनाव सिर पर आते ही इन पेंटर्स की ब्रश रफ्तार पकड़ लेतीं थीं। न सोने का चैन और न खाने की फिक्र, न जाने कितने आम लोगों को खास होते देखा इन पेंटर्स ने, इनकी सधी हुई ब्रश ने न जाने कितनों की तकदीर लिख डाली और गांव-शहर की राजनीति से निकालकर विधानसभा से लेकर संसद तक की कुर्सी पर पहुंचाया। मगर आज हाथों में ब्रश थामें यह परंपरागत पेंटर्स या तो मकान की पुताई करते मिलेंगे या फिर कोई दूसरा काम। क्योंकि कपड़े के बैनर और पोस्टर की जगह अब आधुनिक मशीनों से झटपट तैयार होने वाले फ्लैक्स ने ले ली है।
15 से 20 साल पहले की बात है, तब फ्लैक्स तैयार करने वाली मशीने आम नहीं हुआ करतीं थीं। चुनाव का मौसम आते ही इन पेंटर्स के पास आर्डर्स की भरमार हुआ करती थी। पूरे सीजन में एक पेंटर आम तौर पर 40 से 50 हजार तक बैनर तैयार कर लिया करता था। इसके बाद पूरा शहर हाथ से लिखे बैनरों और होर्डिंग्स से पट जाता था। तब कंप्यूटर से चंद मिनटों में तस्वीर निकलना भी आम नहीं था लिहाजा प्रत्याशियों की तस्वीरें भी हाथ से कपड़े के बैनर पर उकेरी जातीं थीं।
नेता जी की ठाठ से हाथ बांधे हुए तस्वीर बनवानी हो या पैरों से टोपी तक सियासी रौब दिखाना हो यह सब कुछ इन पेंटर्स के बायें हाथ का खेल है। पेंटर प्रेम बाबू को इस काम से जुड़े लगभग 35 साल हो चुके हैं। वह बताते हैं कि 1889 में चुनाव के दौरान वह लगातार आठ दिन जागे थे। उस दौर में काम में सम्मान के साथ-साथ पैसा भी खूब था।
आज यह दौर है कि दिन के 400 से 500 रुपए मिल जाएं तो गनीमत है। चुनाव का काम तो रहा नहीं क्योंकि चुनाव में हाथ से लिखे बैनर कोई नहीं बनवाता है। बहुत सारे शौकीन लोग हैं जो नेम प्लेट दुकानों को साइन बोर्ड आदि लिखवा लेते हैं, वरना तो कई पूछने वाला नहीं। कई बार सार्वजनिक स्थलों पर सरकारी और गैर सरकारी कार्य से होने वाली पेंटिंग का काम मिलने से थोड़ी राहत जरूर मिल जाती है।
बोले पेंटर
साल से इस काम से जुड़े हुए हैं। 15 साल पहले तक काम ठीक ठाक हो जाता था। लेकिन अब आधुनिक मशीनों से झटपट काम हो जाता है। हमारे पास मशीन लगाने का पैसा नहीं। जितना हाथ का काम मिलता है करतें हैं नहीं तो घरों की पुताई का काम करना पड़ता है। -प्रेम बाबू, पेंटर
फ्लैक्स का जमाना लिहाजा चुनाव का काम तो खत्म ही समजिए। 90 प्रतिशत इस समय फ्लैक्स बन रहें हैं। इक्का दुक्का कोई कभी आ गया तो ठीक वरना फ्लैक्स के भई आर्डर लेते हैं। तकनीक बदलती है तो फर्क पड़ता है मगर गुजारा तो कैसे भी करना ही है। -मेराज अहमद, पेंटर
कई साल पहले पेंटिंग का काम खत्म कर परचूनी की दुकान कर ली। बच्चे किस तरह पढ़ाएं हैं हम ही जानते हैं। हमारी ब्रश ने कितनों को सियासत का सूरमा बना दिया। लेकिन कभी कोई सुध लेने नहीं आता। आधुनिकता ने इस कला पर मार तो की है। -उस्मान खान, पेंटर
चुनाव का काम तो न के बराबर है, पेंटिंग के अलावा मजबूरी में किराना स्टोर कर लिया है। सार्वजनिक स्थलों पर दीवारों और ओवर ब्रिजों पर सरकारी गैर सरकारी कार्यों से होने वाली पेंटिंग ने थोड़ी राहत जरूर दी है। -जावेद अंसारी, पेंटर