आग़ा हश्र कश्मीरी अकड़ और बदमिजाज़ी के लिए जाने जाते थे, मुख्तार बेग़म के सामने बन जाते थे मोम…

आग़ा हश्र कश्मीरी अकड़ और बदमिजाज़ी के लिए जाने जाते थे, मुख्तार बेग़म के सामने बन जाते थे मोम…

हिन्दुस्तान का शेक्सपीयर कहे जाने वाले जीनियस आग़ा हश्र कश्मीरी की निगाह जब मुख्तार बेग़म पर पड़ी वे उसके इश्क में बहुत गहरे डूब गए। मुख्तार से 28 साल बड़े आग़ा उन दिनों कलकत्ते के मैदान थियेटर के लिए काम करने आए हुए हुए थे। उनके इस धधकते प्रेम सम्बन्ध की तफसीलें सआदत हसन मंटो …

हिन्दुस्तान का शेक्सपीयर कहे जाने वाले जीनियस आग़ा हश्र कश्मीरी की निगाह जब मुख्तार बेग़म पर पड़ी वे उसके इश्क में बहुत गहरे डूब गए। मुख्तार से 28 साल बड़े आग़ा उन दिनों कलकत्ते के मैदान थियेटर के लिए काम करने आए हुए हुए थे। उनके इस धधकते प्रेम सम्बन्ध की तफसीलें सआदत हसन मंटो के एक मेमॉयर में पाई जाती हैं जिसमें आने वाला एक शख्स बार-बार कहता है – “बुढ़ापे का इश्क बड़ा क़ातिल होता है।”

गाने वालियों के ख़ानदान से ताल्लुक रखने वाली मुख्तार बेगम 1930 के आते-आते न सिर्फ क्लासिकल गायकी का एक बड़ा नाम बन चुकी थीं, हिन्दी फिल्मों में भी एक अदाकार के तौर पर उन्हें बड़ा मुकाम हासिल था। अमृतसर में जन्मीं मुख्तार बेहतर ज़िंदगी और शोहरत के लिए अपना पूरा परिवार लेकर कलकत्ता आ गयी थीं। परिवार में वालदैन के अलावा करीब आधा दर्जन छोटे भाई-बहन थे जिनकी हर चीज़ का वे ख़याल रखती थीं।

उधर आग़ा साहब ने ड्रामों के अलावा फिल्मों के स्क्रीनप्ले लिखना शुरू कर दिया था। उनकी लिखी फिल्मों में मुख्तार ही हीरोइन बना करती। इसके अलावा वे एक स्थापित शायर भी थे और मुख्तार बेग़म उनकी गज़लें गाया करती थीं। दरअसल क्लासिकल गायकी छोड़ मुख्तार ने लाइट क्लासिकल को अपना लिया था और वे अपने समय की सबसे बड़ी ग़ज़ल-गायिका बन चुकी थीं। फ़कत तसव्वुर किया जा सकता है कि कलकत्ते के उस घर में संगीत-साहित्य का कैसा रचनात्मक माहौल रहता होगा जिसमें ये दो जीनियस रहते थे।

आग़ा कश्मीरी को अपना पंजाब याद आता था सो उनके बार-बार इसरार करने पर मुख्तार ने परिवार सहित वापस अमृतसर चलना मंजूर किया। इस परिवार में पांच-छह साल की एक बच्ची जुड़ चुकी थी जिसका जन्म कलकत्ते में ही हुआ था। मुख्तार की यह छोटी बहन उससे बाईस साल छोटी थी।

आग़ा हश्र कश्मीरी यूं तो दुनिया भर में अपनी अकड़, बदमिजाज़ी और शराबखोरी के लिए जाने जाते थे लेकिन मुख्तार के सामने वे मोम बन जाया करते। मुख्तार का उनके जीवन पर ऐसा असर पड़ा कि उन्होंने अपने जीवन के आख़िरी सालों में शराब पूरी तरह छोड़ दी थी। बाज़ लोग कहते हैं कि अगर आग़ा ने शराब न छोड़ी होती तो वे कुछ साल और ज़िंदा रह सकते थे।

बहरहाल 1935 में जब उनका देहांत हुआ मुख्तार की उस सबसे छोटी बहन के पास खुद से पचास साल बड़े अपने इस मशहूर-ए-ज़माना जीजा की काफी स्मृतियाँ इकठ्ठा हो चुकी थीं। उसने बारहा देखा था कि जब मुख्तार गाती थीं आग़ा साहब मंत्रमुग्ध हो जाया करते।

इस बच्ची के दिल के भीतर संगीत की लगन लगाने में इन स्मृतियों ने बड़ी भूमिका निबाही होगी. मुख्तार ने बहन के भीतर प्रतिभा देखी तो पहले खुद उसकी गुरु बन गई और जल्दी ही उसे मशहूर संगीतकार उस्ताद आशिक़ अली खान साहब की शागिर्दी में भारती करवा दिया. बच्ची ने तेज़ी से तरक्की की। हिन्दुस्तान भर के बड़े संगीतकार उनके घर मेहमान बन कर आया करते थे।

उनके सामने बच्ची को गवाया जाता. एक दफा उस्ताद वाहिद अली खां साहब आये तो उसने पक्के सुरों में राग पूरिया धनाश्री गाकर सुनाया। बेगम अख्तर आईं तो उन्हें उन्हीं की ग़ज़ल सुनाई – “दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे।” बेग़म ने मोहब्बत और आशीष के साथ उसके सर पर हाथ फेरा।

1947 में बंटवारा हुआ तो पूरा कुनबा अमृतसर से उठ कर लाहौर आ गया. बच्ची अब अठारह साल की युवती बन चुकी थी और कुछ ही सालों में रेडियो पर क्लासिकल गाने लगी. बचपन में बड़ी बहन से सीखी धुनें उसे हॉन्ट करती थीं और एक दिन उसने तय किया क्लासिकल छोड़ वह भी ग़ज़लें ही गायेगी। उस के हमउम्र मेहदी हसन और इक़बाल बानो भी यही कर रहे थे।

उसकी गाई ज़्यादातर शुरुआती ग़ज़लें मुख्तार बेगम की गाढ़ी परछाइयां हैं. फिर 1973 का साल आया जब फैयाज़ हाशमी के लिखे एक गीत को बहुत बड़े ग़ज़ल-गायक हबीब वली मोहम्मद ने फिल्म ‘बादल और बिजली’ के लिए गाया. राग यमन कल्याण की ज़मीन पर बनाई गयी यह कम्पोजीशन उसे इस कदर भाई कि उसे गाये बिना न रह सकी।

उसकी आवाज़ तब तक पूरी तरह पक चुकी थी और उसने ऐसे गाया गोया वह उसी के लिए रचा गया हो। उसके गाने से इतने सारे जादू बंधे हुए थे कि आज तक संसार भर में उसकी धूम है। फ़रीदा खानम की बात कर रहा हूँ. कौन अभागा होगा जिसने ‘आज जाने की ज़िद ना करो’ एक बार भी गाया-गुनगुनाया न हो!

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