सुलतानपुर: जीवन में गर्माहट देने वाले भेड़ पालन व्यवसाय से पाल समाज का हो रहा मोह भंग, जानिए क्यों कर रहे किनारा?

सुलतानपुर: जीवन में गर्माहट देने वाले भेड़ पालन व्यवसाय से पाल समाज का हो रहा मोह भंग, जानिए क्यों कर रहे किनारा?

हनुमान तिवारी, धनपतगंज, सुलतानपुर, अमृत विचार। गांव का पारंपरिक भेड़ पालन व्यवसाय फैशन के आधुनिक दौर और सरकार की नजर अंदाजी से अंतिम सांसें ले रहा है। नस्ल सुधार और ऊन खरीद केंद्र न होने से इस व्यवसाय से लोगों का मोह भंग हो रहा है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था और सामाजिक संरचना से जुड़ा भेड़ पालन व्यवसाय जिले में अब बंद होने की कगार पर है।

सामाजिक संरचना पर गौर करें तो गांव में पाल समाज के लोगों का यह मुख्य व्यवसाय था। इस समाज से जुड़े लोगों का यह पुश्तैनी व्यवसाय सरकार की नजर अंदाजी के चलते अब भेड़ पालकों के लिए घाटे का सौदा बनता जा रहा है। सरकार द्वारा इसके उन्नयन के लिए न तो नस्ल सुधार की कोई ठोस पहल की जा सकी और न ही इसके ऊन उत्पाद की बिक्री के लिये बाजार तैयार किया जा सका।

खरीदार न मिलने पर फेंकना पड़ रहा ऊन

पाठक पुरवा निवासी भेड़ पालक केसकुमार पाल कहते हैं की साल में दो बार भेंड़ों के ऊन की कटाई होती है। खरीदार न होने से ऊन को फेंक देना पड़ रहा है। दूसरी तरफ नस्ल सुधार की कोई योजना भी सरकार की तरफ से नहीं मिल पा रही है। पूरे कुलपत पुरवा निवासी राज भवन पाल कहते हैं कि भेंड़ों के बीमारी के इलाज के लिए टीकाकरण को छोड़ दिया जाए तो सरकारी अस्पताल से अन्य कोई सुविधा भी नहीं मिल पा रही है। 

भेंड़ों की मृत्यु दर भी बढ़ गई है। सबसे ज्यादा समस्या चारा चुगान की है। चारागाह और जंगल खत्म होने के बाद भेंडों को लेकर घर-बार छोड़कर साल के 12 महीने चारा चुगान कराने के लिए दर-दर भटकना पड़ता है। भेड़ पालन व्यवसाय अब सिर्फ मांस व्यवसाय आधारित बनकर रह गया है। जिससे मन बड़ा खिन्न हो चुका है। 

नई पीढ़ी तो इसे करने के लिए तैयार ही नहीं है। भेड़ पालन व्यवसाय के उन्नयन के लिए सरकार ने कोई ठोस नीति और ऊन बिक्री के लिए बाजार की ठोस व्यवस्था न बनाई तो यह व्यवसाय अब बंद करना पड़ेगा।

कभी खेती के साथ भेड़ पालन व्यवसाय देता था मुनाफा

भेड़ पालकों का कहना है कि करीब दशक भर पहले खेती के साथ भेड़ पालन का व्यवसाय किया जाता था। उस दौर में काफी मुनाफा का सौदा हुआ करता था। अपने यहां मैदानी भाग होने के कारण देशी भेंड़ ही पाली जाती है। इसलिए साल में एक बार मार्च से अप्रैल के बीच उनका बाल निकाला जाता है। दशक भर पहले पहले जब भेंड़ के बाल की कमरी, आसनी, स्वेटर की मांग थी तो 20 रुपये प्रति किलो बिक जाता था। अब मांग खत्म हो गई तो ऊन खरीदार भी नहीं आ रहे हैं।

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