कुमाऊं में होली गायन की है समृद्ध परंपरा, ‘उस्ताद अमानत हुसैन’ कुमाऊंनी शास्त्रीय होली के माने जाते हैं जनक

कुमाऊं में होली गायन की है समृद्ध परंपरा, ‘उस्ताद अमानत हुसैन’ कुमाऊंनी शास्त्रीय होली के माने जाते हैं जनक

होली का पर्व वस्तुतः हर्ष, उल्लास और ऋतु परिवर्तन का ही पर्व है जो भारत के अलावा कई अन्य देशों में मनाया जाता है। उल्लास और मनोरंजन को जन सामान्य होलिका और प्रहलाद के प्रसंग से जोड़कर देखता है, किन्तु होली में मनोविनोद, गीत-संगीत, मिलना, रंग खेलना एक पक्ष है और होलिका दहन दूसरा। उमंग …

होली का पर्व वस्तुतः हर्ष, उल्लास और ऋतु परिवर्तन का ही पर्व है जो भारत के अलावा कई अन्य देशों में मनाया जाता है। उल्लास और मनोरंजन को जन सामान्य होलिका और प्रहलाद के प्रसंग से जोड़कर देखता है, किन्तु होली में मनोविनोद, गीत-संगीत, मिलना, रंग खेलना एक पक्ष है और होलिका दहन दूसरा। उमंग और मनोरंजन के इस त्यौहार की अपनी आंचलिकता भी है जो इसके संगीत में प्रकट होती है।

कुमाऊं में होली की दीर्घ परम्परा है और यहां होली गीत गायन के दो प्रकार हैं- खड़ी होली और बैठकी होली। खड़ी होली ग्रामीण अंचल की ठेठ सामुहिक अभिव्यक्ति है जबकि बैठकी होली को नागर होली भी कहा जाता है। बैठकी होली शास्त्रीय संगीत की बैठकों की तरह होते हुए भी लोकमानस से इस प्रकार जुड़ी है कि उस महफिल में बैठा हुआ प्रत्येक व्यक्ति उसमें अपने को कलाकार/गायक मानता है। यानी मंच और दर्शक/श्रोता के बीच कोई दूरी नहीं होती है। विभिन्न रागों से सजी होली बैठकी की इस परम्परा में अनगिनत गीत हैं जिन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी गाया जा रहा है।

होली के दौरान ढोल बजाकर झूमते होल्यार। (फाइल फोटो)

कुमाऊं क्षेत्र में गायी जाने वाली होलियों में बृज और खड़ी बोली का स्पष्ट प्रभाव देखा जाता है। कुमाऊंनी में गायी जाने वाली होलियों के साथ बृजभाषा और खड़ीबोली की होलियों ने कुमाऊं क्षेत्र में होली की एक समृद्ध परम्परा बनाई। कहते हैं ग्वालियर, मथुरा से भी मुस्लिम संगीतज्ञ यहां आते रहे। 1850 से होली की बैठकें नियमित होने लगीं तथा 1870 से वार्षिक समारोह के रूप में मनाया जाने लगा। शास्त्रीय संगीत से उपजी कुमाऊं की बैठकी होली के स्वरूप को बनाने में उस्ताद अमानत हुसैन का नाम सर्वप्रथम आता है।

माना जाता है कि बरसों पहले अल्मोड़े में बृज की टोलियां रासलीला करने आया करती थी। इन टोलियों में मुस्लिम कलाकार भी शामिल होते थे। 1870-80 के दशक में उस्ताद अमानत हुसैन अल्मोड़ा के प्रमुख शास्त्रीय होली गायकों में से एक थे। वरिष्ठ रंगकर्मी के अनुसार, उस्ताद अमानत हुसैन रामनगर के रहने वाले थे जो बाद में अल्मोड़ा में ही बस गए। कुमाऊं में गायी जाने वाली बैठकी होली में प्रयुक्त होने वाली चाचर ताल की शुरुआत उस्ताद अमानत हुसैन ने ही की थी। इसी कारण उस्ताद अमानत हुसैन को शास्त्रीय कुमाऊंनी होली का जनक माना जाता है।

बात अगर होली की महफिल जमाने वाले कलाकारों की करें तो उनमें मोहन लाल साह, शिवलाल वर्मा, गांगी थोक और मल्ली बाजार अखाड़ा हनुमान मंदिर के महंत लंबे समय तक अल्मोड़ा में होली की शान रहे। यही वजह है कि मल्ली बाजार अखाड़ा हनुमान मंदिर के महंत को उत्तराखंड का भातखंडे के रूप में जाना है। अल्मोड़ा में हुक्का क्लब और खताड़ी मोहल्ले के संस्कृतिकर्मी पौष के पहले रविवार से लेकर छलड़ी तक एक साथ बैठकर बैठकी होली का आयोजन करते हैं।

भारतवर्ष के होली पर्व में ब्रज की होली का जो निराला रूप है, उसमें उत्तराखंड के कुमाऊं अंचल की होली का स्वरूप भी कम नहीं है। कुमाऊं अंचल की होली का स्वरूप भी कम नहीं है। कुमाऊं में इस उत्सव की शुरुआत कब हुई, यह तय कर पाना कठिन है किन्तु अनुमानतः मध्यकाल में दसवीं-ग्यारहवीं सदी से इसका प्रारम्भ माना जाता है। गढ़वाल अंचल के टिहरी व श्रीनगर शहर में कुमाऊं के लोगों की बसासत और राजदरवार के होने से होली का वर्णन मौलाराम की कविताओं में आता है। इस काल में मैदानी क्षेत्र से भिन्न-भिन्न मानव समुदायों का आगमन यहां हुआ जो अपने साथ विरासत में अपनी संस्कृति भी लाए तथा उसका चलन प्रारम्भ किया। जब एक स्थान से कोई संस्कृति दूसरे स्थान पर जाती है तो वह धीरे-धीरे वहां की विशेषताओं को भी अपने में समेटते हुए वहां की हो जाती है। कुमाऊं की होली में भी ऐसा जा सकता है।

हल्द्वानी में होली के रंगों से सराबोर महिलाएं।

कहते हैं, 16वीं सदी में कुमाऊं में होली गायन की परम्परा का आरम्भ राजा कल्याण चंद के समय में हुआ। कुमाऊं नरेश उद्योतचन्द ने 1697 में ‘दशहरे का भवन’ अपने महल में बनवाया, उसमें दशहरे के दिन राजसभा होती थी। चंद राजाओं, कत्यूरियों, मणकोटियों, पंवार वंशीय राजाओं तथा अन्य राजघरानों के बीच आपसी सम्बन्ध कैसे ही रहे हों, कलाकारों का सम्बन्ध काफी घनिष्ठ रहा है। राजशाही के जमाने में कई संगीत मर्मज्ञ यहां आए और कई जिज्ञासु ज्ञान अर्जित करने के उद्देश्य से बाहर गये। चन्द राज्यकाल में राजा प्रद्युमन शाह ने रामपुर के दरवारी संगीतज्ञ अमानत हुसैन को अपने यहां बुलाया। प्रद्युमन शाह को गोरखा आक्रमण से पूर्व सन 1778 के लगभग हरदेव जोशी ने अल्मोड़ा के राजसिंहासन पर बिठाया था। होली गीत से भी राजा के संगीत प्रेमी होने की पुष्टि होती है- ‘‘तुम राजा प्रद्युमन शाह मेरी करो प्रतिपाल। आज होली खेल रहे हैं, सकल सभासद खेल रहे हैं, कर धर सुन्दर थाल री।

राजा कल्याण चंद के समय दरवारी गायकों के संकेत मिलते हैं। अनुमान लगाया जाता है कि दरभंगा में शासकों से भी कहीं न कहीं सम्बन्ध रहे होंगे। कुमाऊं और दरभंगा की होली में अनोखा सामंजस्य है। कन्नौज व रामपुर की गायकी का प्रभावन भी इसमें पड़ा। अनामत अली उस्ताद ने होली गायकी को ठुमरी के रूप में सोलह मात्राओं में पिरोया। उस्तादों व पेशेवर गायकों का योगदान इसमें रहा है।