रमाकांत नीलकंठ-नेहरू और दुनियादारी

रमाकांत नीलकंठ-नेहरू और दुनियादारी

कवि आमतौर पर कल्पनाशील ही नहीं कल्पनाजीवी भी होता है। नेहरू कवि न होकर भी कल्पनाशील और कल्पनाजीवी थे। कल्पनाशील कम कल्पनाजीवी ज्यादा। साहित्यिक प्रतिभा का पुट तो उनमें था ही अन्यथा जो किताबें उन्होंने लिखी हैं उसे लिखते कैसे ! वह गांधी जी की तरह चिन्तनशील और आचरणवादी नहीं थे। गांधी जी की दृष्टि …

कवि आमतौर पर कल्पनाशील ही नहीं कल्पनाजीवी भी होता है। नेहरू कवि न होकर भी कल्पनाशील और कल्पनाजीवी थे। कल्पनाशील कम कल्पनाजीवी ज्यादा। साहित्यिक प्रतिभा का पुट तो उनमें था ही अन्यथा जो किताबें उन्होंने लिखी हैं उसे लिखते कैसे ! वह गांधी जी की तरह चिन्तनशील और आचरणवादी नहीं थे। गांधी जी की दृष्टि पैनी थी – वह वस्तुओं को भेदकर देखने की तलस्पर्शिनी ऊर्जा से सम्पन्न थी। यद्यपि वह दार्शनिक किस्म की नहीं थी। धार्मिक किस्म की थी।

किन्तु बेबाक रूप से शुद्ध थी। वह कर्मठ होने के साथ सेवाभाव से भरे भी रहते थे। शुद्धतावादी होते हुए भी गांधी जी में सबको मिलाकर ले चलने की एक अलग से विलक्षण योग्यता थी जो उन्हें नेता बनाती चली गयी। ऐसा नेता जो सच्चे अर्थों में महात्मा भी बनता चला गया। उनमें युगप्रवर्तक प्रतिभा थी। जो धर्मचक्र प्रवर्तकों के टक्कर की थी। वह मामूली आदमी होते जाकर गैरमामूली बन गये थे। ऐसे असाधारण पुरुष जिसकी इतिहास में मिसाल नहीं मिलती।

फिर भी वह शासक बनने के उपयुक्त नहीं थे। राजत्व उनमें नहीं था। और वह राजत्व उनके आराध्य राम में भी नहीं था, युधिष्ठिर में भी नहीं था। सत्यशोधी व्यक्ति के निकट राजत्व – शासकत्व ठहर नहीं सकता। अगर ठहरा तो उसकी परिणति ममत्व के केन्द्र परिवार के उच्छेद में होती है। उसकी दृष्टि दुश्मन के प्रति करुणाशील हो सकती है, अपनों के प्रति निरपेक्ष होती है। वह लोकनिष्ठित होती है जो सत्यनिष्ठा का व्यक्त रूप है। वहां सत्यदृष्टि अचूक होती है।

बुद्ध समझदार थे इसलिए उन्होने राजगृह त्याग दिया। गांधी जी भी समझदार थे इसलिए उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता छोड़ रखी थी और फिर भी उसके सर्वोच्च नेता थे। पारिवारिक नाममात्र के थे। वास्तव में वह देश के नेता थे। जननेता थे। वह मनुष्यमात्र के नेता थे। कोई औपचारिक उपाधि उन्हें पसन्द नहीं थी, न उनके लायक थी। लोगों से जो विरुद मिले वे ही उनके साथ चले और फबे भी। वह महात्मा हुए और बापू हुए। बाद में राष्ट्रपिता भी हो गये। इतना बस था और यह विपुल था। इसका चौथाई भी विरलों को मिलता है। जवाहरलाल जी की स्थिति भिन्न थी।

नेहरू में नेतृत्व की आभा उनके साथ जन्मजात प्रकट हुई थी। वह गांधी की तरह घिसकर विकसित नहीं हुई थी। वह साहसिक थे किन्तु दुस्साहसिक नहीं। सत्साहसिक भी गांधी इतना नहीं। वह बहुत सुन्दर थे उससे सुन्दर उनका मन था। हृदय विशाल था किन्तु पंक्ति में आगे रहने की जिद्द से विद्ध भी था। ईर्ष्या से कुछ तना भी रहता था। वह सौन्दर्यप्रेमी थे किन्तु उनके भीतर का सहज निर्मल नायकत्व देश की दशा से व्यथित होकर उदासी से इतना भर उठा था

कि वह देश की तकदीर बदल देने की रूमानी वीर भावना से परिचालित रहते थे। उनकी उत्साही वीर उमंगों को गांधी की खांटी वीर भावापन्न अहिंसा संतुलित करती थी। विरोधी स्वभाव होते हुए भी वह गांधी जी के स्वाभाविक शिष्य ही नहीं पट्टशिष्य उसी तरह बन गये जैसे नरेन्द्र (स्वामी विवेकानंद) रामकृष्ण परमहंस के बन गये थे। नेहरू बैरिस्टरी पढ़े जरूर थे किन्तु उस बैरिस्टरी की तप्त छाया उन्हें छू तक न सकी थी। बैरिस्टरी पास अपने समकालीन नेताओं में वह सबसे कम बैरिस्टर थे।

कदाचित यही कारण था कि सरदार पटेल, मो. अली जिन्ना, डा. भीमराव अंबेडकर, डा. राजेंद्र प्रसाद जैसे नेताओं से उनका सम्बन्ध औपचारिक जैसा था। परस्पर का रागबन्ध शिथिल था। बेमेल था। किन्तु नेहरू को कमोबेश बड़े छोटे सभी चाहते थे, एक जिन्ना को छोड़कर। मतभेद अलग चीज है।

उनके स्वभाव का मेल कुछ हदतक भगतसिंह और काफी हदतक सुभाषचन्द्र बोस के साथ बैठता है। अन्तर यह है कि वे दोनों जन अपने पवित्र लक्ष्य के लिए हिंसा की सीमा तक जा सकने का उत्साह और औचित्य रखते थे। नेहरू नहीं। नेहरू की अहिंसामूलक प्रवृत्ति कितनी उनकी थी कितनी गांधी से प्रभावित और अभिभावित, कहना मुश्किल है पर वह भी थी जन्मजात अन्यथा गांधी के साथ विपरीत ध्रुव होते हुए भी उनकी संगति न बैठ पाती। गांधी जी में किसी के मिजाज को सूंघकर भांप लेने की कुदरती क्षमता थी। यही कारण था कि सुभाषचंद्र बोस से उनकी नहीं पटी – परस्पर अटूट प्यार सम्मान का भाव होते हुए भी।

गांधी जी का घोषित कोई सम्प्रदाय न होते हुए भी वह अपनी अहिंसा नीति पर डँटे रहने में कट्टर से कट्टर साम्प्रदायिक से पीछे नहीं, आगे रहते थे। वे और बातों में अपनी सत्यनीति में कुछ सहूलियत ला सकते थे किन्तु अहिंसा में नहीं। सुभाष से पटरी न बैठने के मूल में यह सैद्धांतिक दृष्टि ही है, कुछ और नहीं। दरअसल, नियति सुभाष को गांधी के स्कूल का छात्र बनने की इजाजत नहीं देती थी। वह खुली इजाजत नेहरू को मिलती थी। इसलिए गांधी और उनमें दिली एकमठीय साम्प्रदायिक रिश्ता बनता था। समय ने उन्हें ऐतिहासिक लक्ष्य तक पहुंचने के लिए जैसे चुन रखा था। वह भाग्य सुभाष के हिस्से में कोताहीपूर्वक आया था। तब भी उन्होने आजादी के संघर्ष का समानांतर इतिहास रचकर माना।

नेहरू नायक तो पैदाइशी थे किन्तु शासक नहीं। उनके मन की जैसी संरचना थी उसमें जो झीनापन था वह रचनात्मक दृष्टि से इतना मसृण मानवीय था कि वह राज्यभार उठाने के लायक नहीं था। उनके स्वभाव में राम की तरह कुसुम से अधिक मृदुता तो थी किन्तु उनके जैसी वज्र की दृढ़ता नहीं थी। जबकि एक शासक के चरित्र में उन दोनों अतियों का अंतरंग समन्वय होना चाहिए। गांधी में वह था किन्तु वह सन्त वर्ग के थे, शासक वर्ग के नहीं। नेहरू दुर्भाग्य से शासक वर्ग में आ गये थे और शासक बन गये थे जिसमें उनकी दिलचस्पी भी थी। पर वह दिलचस्पी भ्रम के पाए पर खड़ी थी।

मानसिक यथार्थताओं के सही आकलन पर आधारित नहीं थी। ढहना उसका तय था। आदर्श शासक तो बिरले होते हैं। किन्तु लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी सफल शासक वही हो सकता है जिसमें राजदण्ड सँभालने की यथोचित दृढ़ता हो, उसे कठोरता भी कह सकते हैं। स्वभाव में कोमलता का तत्त्व मात्रा से अधिक होने पर शरमीलापन पैदा होता है जिससे एक विचित्र किस्म के अहंकार की उत्पत्ति होती है जो व्यवस्था पतन का कारण बनती है और रक्षा या प्रतिरोध करने में असफल सिद्ध होती है। नेहरू और उनके शासनकाल को देखते हुए वे उक्तियां सही प्रतीत होती हैं।

अन्तर मात्र इतना है कि उनके सम्मोहक व्यक्तित्व के आभामंडल से व्यवस्था तो बनी रही किन्तु बाहरी आक्रमण के समय उचित प्रतिरोध नहीं हो सका। चौखट तक चढ़ आई चुनौती बराबरी से फेरी न जा सकी। मुंह की खानी पड़ी। उस शिकस्त के बाद भी उन्होंने सत्ता नहीं छोड़ी। अन्तिम दम तक उससे चिपके रहे। ये बातें उनके ऊंचे चरित्र और चरित को कुछ नीचा करती हैं।

उनकी तुलना में उनकी बेटी इन्दिरा में नायक बनने के तो नहीं किन्तु शासक होने के गुण भरपूर थे जिसे उसने अपने राज्यकाल में सिद्ध किया। उसमें शत्रु की चालों को भांपने की वह इन्द्रिय शक्ति मौजूद थी जो सफल शासक के लिए बहुत जरूरी है। यदि नेहरू की मनोसंरचना के आभापुंज में इन्दिरा की प्रभा की एक किरण हाजिर रही होती तो वे निश्चय ही आदर्श शासक बन जाते। वह विलक्षण योग सुभाषचंद्र बोस के व्यक्तित्व में परिलक्षित होता है, जिसे काल ने अवसर नहीं दिया।

जयप्रकाश में भी वह चीज नहीं थी जहांतक मेरा मानना है। अन्यथा रंगमंच पर होते हुए भी वह आखिर में जाकर बूढ़ी, अहिंसा से बुझी तलवार बेटी समान शासक के विरुद्ध न निकालते। जो भाव स्तर पर भी उनकी बहुत करीबी थी। इतिहास की नाव बीच मझधार में झकझोर कर फिर किनारे न जा खड़े होते।

उनकी बनाई लीक पर चलकर चरण सिंह न निकलते और न प्रधानमंत्री बनने के कातर लोभ में अपनी जनता सरकार तोड़कर उसी बेटी(इन्दिरा) के समर्थन से सरकार बनाते जिनके विरुद्ध सम्पूर्ण (?) क्रांति का बिगुल फूंका गया था। जयप्रकाश जी के जीवन की कूत एक ऐसे उदात्त मनीषी आन्दोलनकारी के रूप में रहेगी जिसमें आकस्मिक निर्णयों की अफरातफरी है तो ताकत के मौकों का विसर्जन भी है। अपार लोकप्रियता है तो दांव के पलट जाने की विडम्बना का घाव भी है।

एक बड़े संयुक्त परिवार के मुखिया को जैसा दुनियादार होना चाहिए देश के मुखिया बनने की स्थिति उससे अलग नहीं है। नेहरू में मुखिया धर्म का निर्वाह करनेवाली दुनियादारी का अभाव था। कवि स्वभाव के कल्पनाजीवी व्यक्ति से जब घर की जिम्मेदारी नहीं सँभलती तो देश की जिम्मेदारी क्या सँभलेगी। वही बात नेहरू के देश सँभालने के मामले में घटित होती है।

घटनाएं जिसकी गवाह हैं। आजादी के बाद नेहरू को गांधी जी की तरह राजसत्ता से अलग रहकर अपनी अभिभावकीय भूमिका निभानी चाहिए थी। देश की कमान कांग्रेस के भीतर ही किसी सुलझे हुए दुनियादार आदमी के लिए छोड़ देनी चाहिए थी। तब उनका चरित और ऊंचा उठ जाता। पर, जो भी है, वह है। इतिहास पर दृष्टि तो फेरी जा सकती है उसके किरदारों की नुक्ताचीनी की जा सकती है, गुजर गये चक्कों के चिह्नों की पड़ताल की जा सकती है, सबक लिया जा सकता है किन्तु समय के रथ के चक्कों को फेरा नहीं जा सकता। नेहरू का आजादी के नायक संघर्षशील नेता के रूप में जो ऐतिहासिक मूल्य है वह स्थायी है, निरभ्र है। शासक के रूप में जो मूल्य है, वह प्रश्नविद्ध है। ईषत् श्याम है। यानी ? इतिहासकारों के माथापच्ची का मामला है कवि अनुभूति का नहीं।

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