निजीकरण समाधान नहीं

निजीकरण सरकार के एजेंडे का मुख्य विषय है। पिछले कुछ समय से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण की बात जोर पकड़ रही है। बुधवार को भारतीय स्टेट बैंक की पूर्व प्रमुख अरुंधति भट्टाचार्य ने निजीकरण की वकालत करते हुए कहा कि देश को कम लेकिन मजबूत सार्वजनिक बैंकों (पीएसबी) की जरूरत है और छोटे …

निजीकरण सरकार के एजेंडे का मुख्य विषय है। पिछले कुछ समय से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण की बात जोर पकड़ रही है। बुधवार को भारतीय स्टेट बैंक की पूर्व प्रमुख अरुंधति भट्टाचार्य ने निजीकरण की वकालत करते हुए कहा कि देश को कम लेकिन मजबूत सार्वजनिक बैंकों (पीएसबी) की जरूरत है और छोटे सरकारी बैंकों का निजीकरण या विलय किया जा सकता है।

वर्ष 2021-22 के बजट में सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के दो बैंकों के निजीकरण की मंशा जाहिर की थी। सरकार ने वर्ष 2020 में राष्ट्रीय स्तर के दस सरकारी बैंकों का चार बड़े सार्वजानिक क्षेत्र के बैंकों में विलय कर दिया था। इसके बाद देश में सरकारी बैंकों की संख्या घटकर 12 रह गई। बैंकों के विलय के पीछे सरकार का इरादा बड़े बैंक बनाना था, जो दुनिया के बड़े बैंकों में गिने जा सकें।

1969 में जब पहली बार 14 निजी बैंकों का और 1980 में छह और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था तो उस समय उसका मुख्य उद्देश्य सर्वसमावेशी विकास को बढ़ावा देना था। सूक्ष्म ऋणों के लिए कम ब्याज दरों पर ऋण की उपलब्धता भी सार्वजनिक बैंकों से ही सुनिश्चित हुई थी। हालांकि तब से अभी तक परिस्थितियों में काफी बदलाव आया है।

कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि वर्तमान की बैंकिंग समस्याओं का समाधान निजीकरण में नहीं है। बैंकों के निजीकरण के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यह दिया जाता है कि इससे बैंकिंग व्यवस्था में भ्रष्टाचार रुकेगा और जनता के पैसे की धोखाधड़ी को रोका जा सकेगा लेकिन हाल ही में ऐसे घोटाले उजागर हुए हैं जिनमें उद्योगपतियों ने प्राइवेट बैंकों के अधिकारियों से साठगांठ करके बड़े ऋण प्राप्त कर लिए और बाद में या तो विदेश भाग गए या स्वयं को दिवालिया घोषित कर दिया।

सरकारी बैंकों का मूल्यांकन करते समय इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि वे किस माहौल में कार्य कर रहे हैं। सभी जानते हैं कि इन बैंकों को सरकार की तमाम योजनाओं पर काम करना होता है और सरकार की ओर से दिए गए लक्ष्यों को भी हासिल करना होता है। परिचालन के मामले में जितनी आजादी निजी बैंकों को है, उतनी सरकारी बैंकों को नहीं है।

सरकारी बैंक बहुत कम राशि से भी जमा खाता खोलते हैं और छोटे दुकानदारों, मजदूरों, स्वयं सहायता समूहों को कर्ज देते हैं। सरकारी बैंकों के निजीकरण के समर्थकों के तर्क कई कारणों से औचित्यपूर्ण नहीं ठहराए जा सकते। सरकारी बैंकों के निजीकरण को केवल कुछ संस्थाओं अथवा कुछ अर्थशास्त्रियों द्वारा दिए गए सुझावों के आधार पर अंजाम देना उचित नहीं होगा। इसके कारण होने वाले बदलावों और संभावित दुष्प्रभावों के बारे में अध्ययन करना आवश्यक है।