आगे की राह

दिल्ली उच्च न्यायालय ने गत दिनों देश में समान नागरिक संहिता का समर्थन किया। समान नागरिक संहिता की अवधारणा संविधान के अनुच्छेद 44 में उल्लेखित है। समान नागरिक संहिता की अवधारणा है कि इससे सभी के लिए कानून में एक समानता से राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी।1985 के एक विशेष केस के जरिए सर्वोच्च न्यायालय ने …
दिल्ली उच्च न्यायालय ने गत दिनों देश में समान नागरिक संहिता का समर्थन किया। समान नागरिक संहिता की अवधारणा संविधान के अनुच्छेद 44 में उल्लेखित है। समान नागरिक संहिता की अवधारणा है कि इससे सभी के लिए कानून में एक समानता से राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी।1985 के एक विशेष केस के जरिए सर्वोच्च न्यायालय ने संहिता का मामला उठाया।
उसके बाद कई संदर्भों में समान नागरिक संहिता लागू करने का मुद्दा उठता रहा। 2016 में राष्ट्रीय विधि आयोग ने भी एक मसविदा जारी किया। अब एक बार फिर दिल्ली उच्च न्यायालय ने समान नागरिक संहिता को हकीकत में बदलने की वकालत की तो फिर से इसे लागू करने पर बहस तेज हो गई है। अदालत ने कहा कि समान नागरिक संहिता पर आर्टिकल 44 में जो उम्मीद जताई गई थी अब उसे केवल उम्मीद नहीं रहना चाहिए, बल्कि उसे हकीकत में बदल देना चाहिए।
आजादी के बाद पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और प्रथम कानून मंत्री डॉ. भीमराव अंबेडकर ने समान नागरिक संहिता लागू करने की कोशिशें कीं। उससे पहले संविधान सभा में इस मुद्दे पर बहसों के दौरान अंबेडकर को उग्र विरोध झेलना पड़ा था। समान नागरिक संहिता के विरोधियों ने संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत धार्मिक आज़ादी के अधिकार का उल्लंघन करार दिया, जबकि संहिता के पक्षधर अनुच्छेद 14-15 के तहत नागरिकों की समानता के अधिकार का हवाला दे रहे थे।
विवाद की स्थिति में तब अनुच्छेद 44 के तहत नीति निर्देशक तत्वों में इसे भी रख दिया गया। राजनीतिक तौर पर देखें, तो समान नागरिक संहिता का मुद्दा आरएसएस और जनसंघ के अहम मुद्दों में शामिल रहा है। देश की अदालतें अलग-अलग फैसलों में कह चुकी है कि कानून में एकरूपता लाने के लिए देश में एक समान नागरिक संहिता लाने की कोशिश करनी चाहिए।
जब अदालत इसकी वकालत कर रही है तो ऐसे में इसके सभी पहलुओं को जानने की जरूरत है। इसे लागू कराने के पक्ष में कहा जाता है कि इससे कानूनों का सरलीकरण होगा, समान नागरिक कानून सभी नागरिकों पर लागू होंगे, चाहे वे किसी भी धर्म में विश्वास रखते हों। जबकि विरोध करने वालों का कहना है कि ये सभी धर्मों पर हिन्दू कानून को लागू करने जैसा है।
देश में पर्सनल लॉ में दखलंदाजी नहीं होनी चाहिए। बहरहाल यह सांस्कृतिक और संवैधानिक बदलाव पर कानून या संवैधानिक संशोधन तो संसद को करना है। जरूरी है कि देश को समान कानून में पिरोने की पहल अधिकतम सर्वसम्मति की राह अपना कर की जाए।