पंचायत चुनाव
उत्तर प्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव की घोषणा कर दी गई है। इन चुनाव के माध्यम से अब गांवों में ग्राम पंचायतों का नए सिरे से गठन किया जाएगा। इन चुनाव को लोकतंत्रिक व्यवस्था में बड़ा महत्व दिया जाता है इसलिए हर पांच साल बाद गांव में इस चुनाव को लोकतंत्र के उत्सव के तौर …
उत्तर प्रदेश में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव की घोषणा कर दी गई है। इन चुनाव के माध्यम से अब गांवों में ग्राम पंचायतों का नए सिरे से गठन किया जाएगा। इन चुनाव को लोकतंत्रिक व्यवस्था में बड़ा महत्व दिया जाता है इसलिए हर पांच साल बाद गांव में इस चुनाव को लोकतंत्र के उत्सव के तौर पर लिया जाता है। इसका दूसरा पहलू भी है। पंचायत चुनाव में बड़े स्तर पर विवाद और झगड़े-फसाद भी होते हैं। जाितगत आधार पर चुनाव लड़े जाते हैं। कई बार तो हिंसा की स्थिति बन जाती है।
पिछले पंचायत चुनावों में ऐसे तमाम मामले सामने आए। इससे लोकतंत्र के इस उत्सव में दाग लगते ही हैं, वैमनस्यता को भी बढ़ावा मिलता है। ऐसे में, सरकार की जिम्मेदारी है कि वह पंचायत चुनाव को बेहतर तरीके से संपन्न कराए ताकि कहीं भी हिंसा-फसाद की स्थिति न आने पाए। पंचायत चुनाव ऐसे होने चाहिए कि शांति व्यवस्था बनी रहे और गांवों में प्रेम-भाईचारा कायम रहे। चुनाव मैदान में उतरने वालों को भी चाहिए कि वे चुनाव ऐसे लड़ें कि विवाद की कोई स्थिति न बने।
चुनाव में हार-जीत अलग बात है लेकिन समाज में हम सबको ही साथ रहना है, इसलिए इन चुनाव को उत्सव के तौर पर ही लेना चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक वक्त था जब पंचायत चुनावों में बहुत सारे लोग निर्विरोध निर्वाचित किए जाते थे। गांव के बड़े-बुजुर्ग बैठकर किसी जिम्मेदार व्यक्ति को अपना सरपंच या प्रधान चुन लिया करते थे। चुनाव की नौबत हर गांव में नहीं आने दी जाती थी।
ऐसा इसलिए कि तब प्रधान या सरपंच को गांव के मुखिया का दर्जा दिया जाता था। उसका निर्णय गांव के लोगों के लिए महत्व का और मान्य हुआ करता था। उसकी वजह यही थी कि तब प्रधान की जिम्मेदारी जो संभालता था वह सबको साथ लेकर चलता था। न कोई जातिगत भेदभाव था, न ही किसी से कोई वैमनस्यता का कोई भाव, इसलिए गांवों का विकास भी सही मायने में हो पाता था लेकिन अब वो परिपाटी तो रही नहीं, पंचायत चुनाव में राजनीति हावी हो गई। अब जो लोग चुनाव लड़ते हैं वे साम-दाम-दंड-भेद के साथ बस जीतकर अपने निहित स्वार्थों को देखना हो गया।
अफसोस यह कि पंचायत जैसे चुनाव में भी धन-बल खूब हावी हो चला है। यह लोकतंत्र के लिए अच्छे संकेत बिल्कुल नहीं हो सकते। जरूरत इस बात की है कि पंचायत चुनाव में ऐसी भागीदारी होनी चाहिए जिसमें सिर्फ जीत ही मायने न हो, बल्कि मतदाताओं को खुद यह विकल्प दिया जाना चािहए कि वे अपनी इच्छा से जिसे बेहतर समझें, उसको बिना जोर-दवाब के चुन सकें। उनको न तो प्रलोभन दिया जाना चािहए और न ही कोई दवाब डाला जाना चाहिए, यही सही मायने में यही लोकतंत्र की सही अवधारणा होगी।
