स्वयं में झांकें

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देश अपना 72 वां गणतंत्र दिवस मना रहा है। यह गर्व और खुशी का अवसर तो है ही, स्वयं में झांकने का मौका भी है। इन सालों में हमने बहुत कुछ पाया है। अपने होने को साबित किया है। अपनी बहुरंगी-बहुभाषी, सतरंगी-साझी संस्कृति की धार को कायम रखा है और उसे गहरे अर्थ दिए हैं। …

देश अपना 72 वां गणतंत्र दिवस मना रहा है। यह गर्व और खुशी का अवसर तो है ही, स्वयं में झांकने का मौका भी है। इन सालों में हमने बहुत कुछ पाया है। अपने होने को साबित किया है। अपनी बहुरंगी-बहुभाषी, सतरंगी-साझी संस्कृति की धार को कायम रखा है और उसे गहरे अर्थ दिए हैं। जब संविधान बना, तब इसमें सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक समानता की अवधारणा केंद्र में थी और उदार प्रजातांत्रिक मूल्यों की स्थापना इसका लक्ष्य था।

यह हमारे संविधान की शक्ति ही थी कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद अस्तित्व में आने वाली 35 संवैधानिक शासन व्यवस्थाओं में से केवल भारत ही अपने संविधान और लोकतांत्रिक स्वरूप को अक्षुण्ण बनाए रख सका, शेष सभी देश तानाशाही, सैन्य शासन और गृह युद्ध की मार से जूझते रहे। यह दिवस कुछ बातों पर नए सिरे से सोचने का अवसर भी दे रहा है। संविधान ने जो लोकतांत्रिक व्यवस्था दी थी, उस पर फिर से नजर डालने व सोचने का वक्त भी है कि क्या हम वाकई अपने संविधान की शर्तों पर खरे उतर पाए हैं? वर्तमान परिदृश्य यह सोचने को विवश कर रहा है। सर्वोच्च न्यायालय की स्पष्ट व्यवस्थाओं के बावजूद यदि आग्रह, दुराग्रह की हद तक बढ़ते दिखाई दें, तो हमें सचेत हो जाना चाहिए।

कुछ कर्त्तव्य सार्वभौमिक होते हैं और उन्हें देशकाल की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता और भारतीय जनमानस इन कर्त्तव्यों के पालन में कभी पीछे नहीं रहा। इस गणतंत्र दिवस पर हमें साहस कर स्वयं से सवाल पूछने होंगे कि क्या हम देश की सामाजिक संस्कृति की रक्षा कर पा रहे हैं। आज देश का किसान आंदोलनरत है। दरअसल, जिस जनता को हमेशा अपने अधिकारों के लिए अनुचित हठ करने वाली भीड़ के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, वह अपने सर्वोच्च नागरिक कर्त्तव्य का पालन कर रही है।

यदि राज्य की नीतियों और निर्णयों का विरोध देशद्रोह के रूप में परिभाषित कर कुचला जाने लगे तो यह समझ लेना चाहिए कि हमारे गणतंत्र के लिए समय अच्छा नहीं है। यदि बड़ा बहुमत हासिल करने वाली पार्टी सत्तासीन होने के बाद अपने वैचारिक पूर्वाग्रहों से उबर न पाए तो इसके परिणाम लोकतंत्र के लिए घातक होते हैं। क्या राष्ट्रभक्ति की परिभाषा तय करने का अधिकार किसी दल विशेष या व्यक्ति विशेष को है? साथ ही बहुसंख्यक वोट बैंक की नाराजगी का खतरा मोल लेने से डरने वाले राजनीतिक दलों को गणतंत्र की रक्षा के अपने उत्तरदायित्व से विमुख होते देखना सचमुच दुःखद है। हमें गणतंत्र को उसके वास्तविक भाव के अनुरूप ढालना होगा।