Bareilly: आजादी से पहले कैसा दिखता था अपना शहर ? कितना बदल गया कुतुबखाना और घंटाघर

Amrit Vichar Network
Published By Monis Khan
On

19 वीं सदी से लेकर अब तक तीन बार कुतुबखाना घंटाघर का स्वरूप बदला

शहर की धड़कन कहा जाने वाला कुतुबखाना या टाउन हॉल पर मौजूद घंटाघर। जो महज एक बड़ी घड़ी नहीं बल्कि इतिहास के कई पन्नों को अपने आप में समेटे है। 19वीं सदी से लेकर अब तक तीन बार इस घंटाघर का स्वरूप बदला। घंटाघर के आसपास मौजूद इलाके को कुतुबखाना या टाउन हॉल क्यों कहते हैं? और क्या है इसकी ऐतिहासिक अहमियत? जानेंगे हमारी इस खास पेशकश में। 

बरेली, अमृत विचार। शहर की धड़कन कहा जाने वाला कुतुबखाना या टाउन हॉल पर मौजूद घंटाघर। जो महज एक बड़ी घड़ी नहीं बल्कि इतिहास के कई पन्नों को अपने आप में समेटे है। 19वीं सदी से लेकर अब तक तीन बार इस घंटाघर का स्वरूप बदला। घंटाघर के आसपास मौजूद इलाके को कुतुबखाना या टाउन हॉल क्यों कहते हैं? और क्या है इसकी ऐतिहासिक अहमियत? जानेंगे हमारी इस खास पेशकश में। 

मोती पार्क
1940 में मोती पार्क में खड़ा एक बालक, आज यहां पार्किंग स्थल है

आजादी के आंदोलन का गवाह मोती पार्क
कुतुबाखाना का जिक्र हो उससे पहले इसके पास मौजूद एक और ऐतिहासिक जगह की बात करना जरूरी है। जिसे लोग आज पार्किंग के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। बेशक हम बात कर रहे हैं मोती पार्क के मैदान की। ये मैदान कभी राजनीतिक सभाओं का गढ़ हुआ करता था। इसके अलावा खाली वक्त में लोग टहलने के लिए भी आते थे। इस पार्क की अहमियत को इसी बात से समझा जा सकता है कि अपने आंदोलन के दौरान 1920 में महात्मा गांधी यहां सभा करने पहुंचे थे।

कुतुबखाना
आज जहां घंटाघर है वहां हुआ करती थी ये भव्य इमारत टाउन हॉल

शहर के बीचो-बीच मौजूद थी भव्य इमारत
कुतुबखाना का नाम सुनते ही किताबों की महक और शांति का एहसास होता है। इतिहास के झरोखों में झांककर देखें तो ब्रिटिश हुकूमत ने बरेली शहर के बीचो बीच 1868 में एक मरकज कायम किया जिसको नाम दिया गया टाउन हॉल। पहली मंजिल से बाहरी इमारत के दोनों छोर पर उतरतीं इसकी चौड़ी व घुमावदार सीढ़ियां और बाहरी इमारत की भव्यता इसके रसूख और भव्यता का अहसास कराती थी।

कुतुबखाना न्यू
टाउन हॉल जिसके अंदर एक पुस्तकालय था 1968 में ढह गया था

तो इसलिए पुकारा जाता है कुतुबखाना
ये इमारत न सिर्फ प्रशासनिक गतिविधियों का केंद्र थी, बल्कि इसमें एक बड़ा पुस्तकालय भी था। उर्दू में पुस्तकालय को 'कुतुबखाना' कहा जाता है। जिसकी वजह से आम बोलचाल में लोग इसके आसपास मौजूद इलाके को ही कुतुबखाना कहने लगे। ये वह दौर था जब अंग्रेज अफसर और शहर बुद्धिजीवी इस पुस्तकालय में ज्ञान की तलाश में आते थे। सांस्कृतिक आयोजनों और बैठकों के लिए भी ये भवन मशहूर था। लोग कई सीढ़ियां चढ़कर पुस्तकालय तक पहुंचते थे। 

आकाशीय बिजली गिरने से ढही थी इमारत
समय के साथ टाउन हॉल का स्वरूप बदलता गया। 20वीं सदी की शुरुआत से पहले ही इस इमारत की हालत खस्ता होने लगी थी। फिर भी जैसे-तैसे इस भव्य इमारत ने दशकों तक खुद को बचाए रखा। पुराने लोग बताते हैं कि 1968 में आई आंधी और आकाशीय बिजली गिरने से ये बिल्डिंग पूरी तरह ध्वस्त हो गई।  कुतुबखाना चौराहे के पास जहां आज पुलिस चौकी है, वहीं स्थान कभी टाउन हॉल कहलाता था। 

पुराना घंटाघर
टाउन हॉल ढह जाने के बाद 1975 में यहां घंटाघर बना


1975 में मिला घंटा घर का नाम
पुरानी इमारत को गिराकर 1975 में यहां घंटाघर का निर्माण कराया। यह घंटाघर बरेली शहर की नई पहचान बन गया और कुतुबखाना व टाउन हॉल का सिर्फ नाम रह गया जो आज महज एक व्यस्त बाजार है। कई दशक तक पीले रंग की इमारत शहर के लोगों को समय बताती रही। नया रंग रौगन कर कई बार इसका स्वरूप भी बदला गया लेकिन समय के साथ ये घंटाघर जर्जर होने लगा था।

नया घंटाघर
2022 में पुरानी इमारत की जगह घंटाघर को नया रूप दिया गया


2022 में फिर गूंजने लगी घंटे की आवाज
1975 में घंटाघर का निर्माण तो कर दिया गया था, लेकिन घड़ी 1977 में जाकर लगी। रखरखाव के चलते घड़ी खराब हो गई। काफी इंतजार के बाद 2020 में चेन्नई की कंपनी इंडियन क्लॉक्स को इसका ठेका दिया गया। स्मार्ट सिटी के तहत कायाकल्प कराने के बाद 2022 में घंटे की आवाज लोगों को सुनाई दी। कहा जाता है कि एक किलो मीटर तक घंटे की आवाज लोग सुन सकते  थे। 

संबंधित समाचार