होली आई रे... आधुनिकता में विलुप्त हो रही है ढोलक की थाप और फगुवा गीत
मर्मस्पर्शी कर्णप्रिय गीत की जगह ले रही कान फोड़ू डीजे
परसपुर/ गोंडा, अमृत विचार। बदलते परिवेश के साथ सदाबहार पुराने परंपरागत होली गीतों एवं ढोलक की थाप का लोप होता जा रहा है। एक समय था होली शुरू होते ही गांव में गलियां, चौराहे गुलजार हो जाते थे। ढोलक की थाप पर मजीरा, झांझ के साथ कर्णप्रिय गीत होली के महीने भर पहले से आमद करा देते थे।
यह गीत नसीहत भरे व प्राकृतिक वातावरण को समेटे मर्मस्पर्शी और झंकार पैदा करने वाले होते थे। पूरे गांव के लोग एक जगह बैठकर शाम को नसीहत व मिठास भरे पुरातन गीतों को गाते व सुनते थे। सभी महिलाएं, पुरुष व बच्चे एक स्थान पर जुटकर गीत का आनंद उठाते थे, लेकिन अब बदलते समय के साथ धूम-धड़ाके वाले कानफोड़ू अश्लील गीतों के आगे सुमधुर आवाज वाले पुराने गीत गुम होते जा रहे हैं। फागुन की मिठास लिए फगुआ, चैता गीत गाने वाले की भी अब कमी हो गई है। अब वह पुराने गीत व गायक दोनों का लोप होता जा रहा है। अब आधुनिकता का पुट लिए अश्लील गीत उनका स्थान ले रहे हैं। वर्ग विशेष के सार्वजनिक उत्सव के नृत्य के साथ गाए जाने वाले गीत जैसे धोबिया, कहरवा, मल्हार आदि का भी उठान होता जा रहा है। पुराने गीतों की धार्मिकता भाव वाले गीत नहीं सुनाई पड़ते, गीतों के गायक भी अब कम ही बचे हैं।
इस संबंध में ताले पुरवा परसपुर निवासी 70 वर्षीय वासुदेव सिंह व अन्दूपुर निवासी 92 वर्षीय बुजुर्ग चन्द्रपाल शाह ने बताया कि पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। अब वह पुराने गीत खत्म होते जा रहे हैं। होली के एक महीने पहले से ही शाम को गायक आते व गीत गाते तो वहां पर पूरा गांव इकट्ठा होकर सुनता था। सभी के बीच आपस में प्रेम रहता था, लेकिन वह सब गुजरे जमाने की बात हो गई है। पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव अधिक होने के कारण परंपरा खत्म होने लगी है। जैसे आज बिरज में होली रे रसिया, अवध में होली खेले रघुवीरा, की गूंज उठती थी तो पैर अपने आप थिरकने को मजबूर हो जाते थे।
फाग गायन से जुड़े लोगों का मानना है कि आज मनोरंजन के अधिक संसाधन विकसित होने एवं युवा पीढ़ी का फाग गायन के प्रति रुचि न लेने के कारण फाग की दुर्दशा हो रही है। युवा पीढ़ी फाग गायन के लिए आगे नहीं आ रही है। स्थिति यह है कि अब होली पर फाग की जगह फिल्मी गीतों की गूंज डीजे के माध्यम से सुनाई देती है।
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