Allahabad High Court: वंश के निर्धारण के लिए मैट्रिकुलेशन सर्टिफिकेट के अभाव में डीएनए टेस्ट का आदेश संभव
प्रयागराज। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने वसीयत के एक विवाद में महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि किसी स्कूल द्वारा जारी मैट्रिकुलेशन सर्टिफिकेट को जन्मतिथि निर्धारित करने के लिए पर्याप्त कानूनी प्रमाण माना जाता है। कोर्ट ने कहा कि जहां ऐसा सर्टिफिकेट गलत साबित हो जाता है, वहां डीएनए टेस्ट की जरूरत पड़ती है।
न्यायमूर्ति सौरभ श्याम शमशेरी की एकलपीठ ने अपर्णा अजिंक्य फिरोदिया के मामले का हवाला देते हुए कहा कि डीएनए टेस्ट करने का आदेश सामान्य तौर पर पारित नहीं किया जा सकता है। ऐसा आदेश केवल उन असाधारण परिस्थितियों में पारित किया जाना चाहिए, जब संबंधित व्यक्ति के माता-पिता का निर्धारण करने के लिए कोई अन्य कानूनी आधार ना हो। चूंकि वर्तमान मामले में ऐसे दस्तावेज उपलब्ध हैं, जिसे जन्मतिथि के निर्धारण के लिए पर्याप्त कानूनी प्रमाण माना जा सकता है।
अतः मौजूदा मामले में डीएनए टेस्ट का आदेश नहीं दिया जा सकता। मामले के अनुसार विवादित जमीन याकूब के नाम पर थी, जिसके तीन बेटों शकील, जमील और फुरकान में से शकील ने याची मोबिन के साथ मार्च 1997 में शादी की, लेकिन जुलाई 1997 में उसकी मृत्यु हो गई। याची का कहना है कि विवाह से एक बेटी का जन्म हुआ, लेकिन विपक्षियों का आरोप है कि याची की दूसरी शादी से बेटी का जन्म हुआ है।
इसके अलावा यह भी आरोप लगाया गया है कि पत्नी ने अपने जीवनकाल के दौरान शकील की देखभाल नहीं की, इसलिए उसने विपक्षियों के पक्ष में अपनी वसीयत कर दी। याची के अधिवक्ता का तर्क है कि बेटी के हाईस्कूल सर्टिफिकेट में उल्लिखित जन्मतिथि वर्ष 1999 के आधार पर शकील को उसका पिता नहीं माना जा रहा है, क्योंकि शकील की मृत्यु वर्ष 1997 में हो चुकी थी।
बेटी के जन्म और शकील की मृत्यु के बीच 615 दोनों का अंतर है, इसलिए शकील उसका पिता नहीं हो सकता है। अंत में वंश को सत्यापित करने के लिए डीएनए टेस्ट करवाने का अनुरोध किया गया। इसके अलावा विपक्षियों के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि चूंकि पत्नी ने दोबारा शादी की थी, इसलिए उसे यूपी जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम,1950 की धारा 171 के तहत कानूनी उत्तराधिकारी नहीं माना जा सकता है।
अंत में कोर्ट ने मैट्रिकुलेशन सर्टिफिकेट को पर्याप्त कानूनी सबूत मानते हुए बेटी के डीएनए टेस्ट का आदेश देने का कोई उचित अवसर नहीं पाया। इसके अलावा कोर्ट ने नोट किया कि वयस्क हो चुकी बेटी ने विवादित भूमि पर अपने अधिकार का दावा करने के लिए कभी कोई कदम नहीं उठाया है, इसलिए कोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए यह माना कि याचियों के कहने पर वसीयत में कोई बदलाव नहीं किया जा सकता है।
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