चिकित्सकीय चित्त विकृति किसी अपराधी को बरी करने का आधार नहीं हो सकती: संसदीय समिति
नई दिल्ली। संसद की एक समिति ने कहा है कि महज चिकित्सकीय चित्त विकृति (मेडिकल इन्सैनिटी) किसी आरोपी को बरी करने का आधार नहीं हो सकती और वैध बचाव का दावा करने के लिए कानूनी चित्त विकृति (लीगल इन्सैनिटी) साबित करना जरूरी है।
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भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सांसद बृजलाल की अध्यक्षता वाली गृह मामलों से संबंधित संसद की स्थायी समिति ने यह भी सिफारिश की कि प्रस्तावित नए आपराधिक कानून में ‘मानसिक बीमारी’ शब्दावली के स्थान पर ‘चित्त विकृति’ का इस्तेमाल हो सकता है, क्योंकि ‘मानसिक बीमारी’ शब्द का अर्थ ‘चित्त विकृति’ की तुलना में बहुत व्यापक है। समिति का कहना है कि मानसिक बीमारी के दायरे में मूड में बदलाव या स्वेच्छा से नशा भी आता है।
प्रस्तावित तीन नए आपराधिक कानूनों की पड़ताल के बाद तैयार की गई अपनी रिपोर्ट में समिति ने ये टिप्पणियां की हैं। समिति का कहना है कि महज चिकित्सकीय चित्त विकृति आरोपी को बरी करने का आधार नहीं हो सकती और वैध बचाव का दावा करने के लिए कानूनी चित्त विकृति साबित करना जरूरी है।
प्रस्तावित कानून भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस-2023), भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस-2023) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (बीएसए-2023) हैं। गत 11 अगस्त को लोकसभा में पेश किए गए तीन विधेयक भारतीय दंड संहिता, 1860, दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की जगह लेंगे। समिति की रिपोर्ट शुक्रवार को राज्यसभा सभापति जगदीप धनखड़ को सौंपी गई।
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