बरेली: 6 माह में जिला महिला अस्पताल में 140 बच्चों की मौत
सरकारी व्यवस्था की ठोकरों से पहले ही पड़ाव पर जिंदगी का सफर खत्म
अंकित चौहान/बरेली, अमृत विचार। सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की हालत क्या हो चुकी है, इसका अंदाजा इस दिल दहलाने वाले तथ्य से लगाया जा सकता है कि जिला महिला अस्पताल में पिछले साढ़े पांच महीने में ही 140 नवजात शिशु दम तोड़ चुके हैं। यह हाल तब है, जब मातृ-शिशु मृत्यु दर कम करने के लिए तमाम योजनाएं चलाई जा रही हैं और करोड़ों रुपये भी फूंके जा रहे हैं।
सरकारी अस्पतालों में ज्यादा से ज्यादा संस्थागत प्रसव कराने पर शासन का जोर है लेकिन शिशुओं की मृत्यु दर बता रही है कि यहां भी सुरक्षित प्रसव की गारंटी नहीं है। चिंतित करने वाला तथ्य यह भी है कि नवजात शिशुओं की मौत का सिलसिला न थमने में आ रहा है न उसकी रफ्तार कम हो रही है। जनवरी से मध्य जून तक जिला महिला अस्पताल में ही नवजात शिशुओं की मौत का आंकड़ा 140 है, जिले के देहात में सरकारी अस्पतालों में शिशुओं की मौत की स्थिति का आंकड़ा तो नहीं लेकिन उनमें इससे भी ज्यादा खराब हालात बताए जा रहे हैं।
नवजात शिशुओं की इतनी ज्यादा संख्या में मौत के वैसे तो कई कारण बताए जा रहे हैं लेकिन इनमें एक कारण महिला अस्पताल में अव्यवस्थाओं और भ्रष्टाचार का माहौल भी माना जा रहा है। रिश्वतखोरी की शिकायतें यहां आम हैं, तमाम बार पैसे न देने पर ठीक से इलाज न करने के भी आरोप लग चुके हैं। कुछ ही दिन पहले सिजेरियन प्रसव से पहले खून की जरूरत पड़ी तो अस्पताल के स्टाफ ने गर्भवती महिला को ही खून लेने ब्लड बैंक भेज दिया गया था। मरीजों की जिंदगी से खिलवाड़ के इस तरह के मामलों की महिला अस्पताल में भरमार है। और भी ज्यादा खराब स्थिति यह है कि स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी भी इन मामलों को गंभीरता से नहीं लेते।
मासूमों की मौतों को स्वास्थ्य विभाग में ही एक-दूसरे पर टालने की जोड़तोड़
जिला महिला अस्पताल में दम तोड़ने वाले बच्चों में जिले के दूसरे अस्पतालों से रेफर होकर आए बच्चे और महिला अस्पताल में ही जन्मे बच्चों की संख्या अलग-अलग है। उन बच्चों की मौत ज्यादा हुई है जिन्हें जिले के दूसरे सरकारी अस्पतालों में जन्म लेने के बाद जिला महिला अस्पताल के लिए रेफर किया गया था। महिला अस्पताल प्रशासन के मुताबिक बाहर से रेफर होकर आए 103 बच्चों की उनके यहां एसएनसीयू में इलाज के दौरान मौत हुई है जबकि उनके यहां जन्म लेने के बाद दम तोड़ने वाल बच्चों की संख्या सिर्फ 37 है। कहा जा रहा है कि दूसरे अस्पतालों से बच्चों को तब रेफर किया जाता है, जब उनकी हालत गंभीर हो चुकी होती है, इसी कारण महिला अस्पताल में उन्हें बचाना मुश्किल होता है। हालांकि इसका जवाब किसी के पास नहीं है कि जिला महिला अस्पताल में संसाधन और चिकित्सा की सुविधाएं ज्यादा होने के बावजूद इतने बच्चों की मौत क्यों हो रही है। यह भी सवाल उठ रहा है कि स्वास्थ्य विभाग के उच्चाधिकारी देहात के सरकारी अस्पतालों की बदहाल स्थिति पर ध्यान क्यों नहीं दे रहे हैं।
रेफर करने का खेल, फिर भी ये हाल
जिला महिला अस्पताल के आंकड़ों के अनुसार बच्चों की मौत के साथ यहां उन्हें रेफर करने का भी खेल जमकर चल रहा है। साढ़े पांच महीने में यहां से कुल 140 बच्चे गंभीर हालत में रेफर किए गए हैं। इन बच्चों में बाहर से रेफर होकर जिला महिला अस्पताल में भर्ती हुए बच्चों की संख्या ज्यादा है। जाहिर है कि दूसरे अस्पताल बच्चों को महिला अस्पताल रेफर कर रहे हैं और महिला अस्पताल से उन्हें दूसरे हायर सेंटर रेफर किया जा रहा है। इस बीच रेफर होने वाले बच्चों में 87 का प्रसव बाहर के अस्पतालों में हुआ था। रेफर किए गए 53 बच्चे महिला अस्पताल में ही जन्मे थे।
3 से 4 प्रसव रोजाना होते हैं महिला अस्पताल में सिजेरियन
5 से 6 रोजाना होते हैं सामान्य प्रसव महिला अस्पताल में
200 से 250 मरीज रोजाना आते हैं ओपीडी में
ज्यादातर बच्चे बाहर से रेफर होकर गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती होते हैं। फौरन इलाज शुरू किया जाता है, लेकिन बच्चों की मौत हो जाती है। जच्चा-बच्चा की जान बचाने की हर कोशिश की जाती है। सीएचसी-पीएचसी से रेफर होकर आने वाले बच्चे लगातार बढ़ रहे हैं। - डॉ. पुष्पलता शमी, सीएमएस जिला महिला अस्पताल
10 साल से एनुअल हेल्थ सर्वे नहीं
शासन की ओर से वर्ष 2012-13 में कराए एनुअल हेल्थ सर्वे में पता चला था कि बरेली जिले में 0 से 28 दिन के एक हजार बच्चों में से दम तोड़ने वाले बच्चों का औसत 52 है। मानकों के हिसाब से बच्चों की मौत की यह संख्या काफी ज्यादा थी। इसमें कोई सुधार हुआ या नहीं, इसका कोई पता इसलिए नहीं लगा क्योंकि शासन ने इसके बाद एनुअल हेल्थ सर्वे कराया ही नहीं।
ये भी हैं बच्चों की मौत के कारण
- ऐसे बच्चों में मृत्यु दर काफी अधिक होती है जिनका वजन दो किलो से कम होता है।
- जो बच्चे जटिलताओं के साथ पैदा होते हैं या उन्हें रेफर करने में देरी की जाती है।
- गर्भावस्था के दौरान शिशु के स्वास्थ्य का पर्याप्त ख्याल न रखना, खून की कमी होना।
- स्थिति जटिल होने तक सर्जरी का निर्णय लेने में देरी, अस्पतालों की अव्यवस्थाएं।
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