आ गई याद शाम ढलते ही…

आ गई याद शाम ढलते ही…

आ गई याद शाम ढलते ही बुझ गया दिल चराग़ जलते ही खुल गए शहर-ए-ग़म के दरवाज़े इक ज़रा सी हवा के चलते ही कौन था तू कि फिर न देखा तुझे मिट गया ख़्वाब आँख मलते ही ख़ौफ़ आता है अपने ही घर से माह-ए-शब-ताब के निकलते ही तू भी जैसे बदल सा जाता …

आ गई याद शाम ढलते ही
बुझ गया दिल चराग़ जलते ही

खुल गए शहर-ए-ग़म के दरवाज़े
इक ज़रा सी हवा के चलते ही

कौन था तू कि फिर न देखा तुझे
मिट गया ख़्वाब आँख मलते ही

ख़ौफ़ आता है अपने ही घर से
माह-ए-शब-ताब के निकलते ही

तू भी जैसे बदल सा जाता है
अक्स-ए-दीवार के बदलते ही

ख़ून सा लग गया है हाथों में
चढ़ गया ज़हर गुल मसलते ही

*मुनीर नियाज़ी*

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