कुमाऊं की होली रंगो के साथ-साथ रागों के संगम का पर्व

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कुमाऊं की होली की बात ही अलग है, जिस प्रकार यहां की रामलीला का अलग-अलग रूप है वैसे ही होली का भी है। राग व फाग का त्योहार होली की चार विधाएं हैं जिनमें खड़ी, बैठकी, महिलाओं के होली, ठेठर और स्वांग शामिल हैं। कुमाऊं में होली की शुरुआत बसंत के स्वागत के गीतों से …

कुमाऊं की होली की बात ही अलग है, जिस प्रकार यहां की रामलीला का अलग-अलग रूप है वैसे ही होली का भी है। राग व फाग का त्योहार होली की चार विधाएं हैं जिनमें खड़ी, बैठकी, महिलाओं के होली, ठेठर और स्वांग शामिल हैं। कुमाऊं में होली की शुरुआत बसंत के स्वागत के गीतों से होती है, जिसमें प्रथम पूज्य गणेश, राम, कृष्ण व शिव सहित कई देवी देवताओं की स्तुतियां व उन पर आधारित होली गीत गाऐ जाते हैं। बसन्त पंचमी के आते आते होली गायकी में क्षृंगारिकता बढ़ने लगती है।

खड़ी होली का अभ्यास आमतौर पर पटांगण (गांव के मुखिया के आंगन) में होता है। यह होली अर्ध-शास्त्रीय परंपरा में गाई जाती है जहां मुख्य होल्यार होली के मुखड़े को गाते हैं और बाकी होल्यार उसके चारों ओर एक बड़े घेरे में उस मुखड़े को दोहराते हैं। ढोल नगाड़े नरसिंग उसमें संगीत देते हैं। घेरे में कदमों को मिलाकर नृत्य भी चलता रहता है कुल मिलाकर यह एक अलग और स्थानीय शैली है।

जिसकी लय अलग-अलग घाटियों में अपनी अलग विशेषता और विभिन्नता लिए है। खड़ी होली ही सही मायनों में गांव की संस्कृति की प्रतीक है। यह आंवला एकादशी के दिन प्रधान के आंगन में अथवा मंदिर में चीर बंधन के साथ प्रारंभ होती है।

द्वादशी और त्रयोदशी को यह होली अपने गांव के निशाण अर्थात विजय ध्वज ढोल नगाड़े और नरसिंग जैसे वाद्य यंत्रों के साथ गांव के हर मवास के आंगन में होली का गीत गाने पहुंचकर शुभ आशीष देती हैं। उस घर का स्वामी अपनी श्रद्धा और हैसियत के अनुसार होली में सभी गांव वालों का गुड़, आलू और अन्य मिष्ठान के साथ स्वागत करता है।

चतुर्दशी के दिन क्षेत्र के मंदिरो में होली पहुंचती है, खेली जाती है। चतुर्दशी और पूर्णिमा के संधिकाल जबकि मैदानी क्षेत्र में होलिका का दहन किया जाता है यहां कुमाऊं अंचल के गांव में, गांव के सार्वजनिक स्थान में चीर दहन होता है। अगले दिन छलड़ी यानी गिले रंगो और पानी की होली के साथ होली संपन्न होती है।

हारमोनियम और तबला के साथ शास्त्रीय संगीत की विधा में बैठकर होली गायन की परंपरा अद्भुत है। स्थानीय परंपराओं में यहां हर शहर और गांव में दो-चार अद्भुत होल्यार हुए हैं। जो न केवल होली के गीत बनाते हैं बल्कि उसकी डायरी तैयार रखते हैं और इस शानदार परंपरा को रियाज के जरिए अगली पीढ़ी तक भी पहुंचाते हैं।

शिवरात्रि के अवसर पर शिव के भजन जैसे `जय जय जय शिव शंकर योगी´आदि होली के रूप में गाए जाते हैं। खड़ी होलियां कुमाऊं की लोक परंपरा के अधिक निकट मानी जाती हैं और यहां की पारंपरिक होलियां कही जाती हैं। यह होलियां ढोल व मंजीरों के साथ बैठकर व विशिष्ट तरीके से पद संचालन करते हुऐ खड़े होकर गाई जाती हैं। इन दिनों होली में राधा-कृष्ण की छेड़छाड़ के साथ क्षृंगार की प्रधानता हो जाती है, यह होलियां प्राय: पीलू राग में गाई जाती हैं।

महिलाओं की होली बसंत पंचमी के दिन से प्रारंभ होकर रंग के दूसरे दिन टीके तक प्रचलित रहती है यह आमतौर पर बैठकर ही होती है। ढ़ोलक और मजीरा इसके प्रमुख वाद्य यंत्र होते हैं। महिलाओं की होली शास्त्रीय, स्थानीय और फिल्मी गानों को समेट कर उनके फ्यूजन से लगातार नया स्वरूप प्राप्त करती रहती है। 25- 30 वर्ष पूर्व जब समाज में होली के प्रति पुरुषों का आकर्षण कम हो रहा था और तमाम मैदानी क्षेत्र की बुराइयां पर्वतीय होली में शामिल हो रही थी। तब महिलाओं ने इस सांस्कृतिक त्यौहार को न केवल बचाया बल्कि आगे भी बढ़ाया।

स्वांग और ठेठर होली में मनोरंजन की सहायक विधा है, इसके बगैर होली अधूरी है। यह विधा खासतौर पर महिलाओं की बैठकी होली में ज्यादा प्रचलित है। जिसमें समाज के अलग-अलग किरदारों और उनके संदेश को अपनी जोकरनुमा पोशाक और प्रभावशाली व्यंग के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है।
संगीत के मध्य विराम के समय यह स्वांग और ठेठर होली को अलग ऊंचाई प्रदान करता है। कालांतर में होली के ठेठर और स्वांग की विधा ने कुछ बड़े कलाकारों को भी जन्म दिया।

महिलाएं तरह-तरह के स्वांग रचकर हंसी ठिठोली करती हैं। होली के त्योहार को होली के शुरू होने से एक महीने पहले से और होली के खत्म होने के एक महीने बाद तक मनाया जाता है।

होली का त्यौहार रंगों का त्यौहार है, धूम का त्यौहार है, लेकिन उत्तराखण्ड के कुमाऊं मण्डल में होली रंगो के साथ-साथ रागों के संगम का त्यौहार है। इसे अनूठी होली कहना भी गलत नहीं होगी, क्योंकि यहां होली सिर्फ रंगों से ही नहीं, बल्कि रागों से भी खेली जाती है।

पौष माह के पहले सप्ताह से ही और वसंत पंचमी के दिन से ही गांवों में बैठकी होली का दौर शुरु हो जाता है। इस रंग में सिर्फ अबीर गुलाल का टीका ही नहीं होता बल्कि बैठकी होली और खड़ी होली गायन की शास्त्रीय परंपरा भी शामिल होती है।

 

कुमाउनीं होली में चीर व निशान की विशिष्ट परम्पराएं…
कुमाऊं में चीर व निशान बंधन की भी अलग विशिष्ट परंपरायें हैं। इनका कुमाउनीं होली में विशेश महत्व माना जाता है। होलिकाष्टमी के दिन ही कुमाऊं में कहीं कहीं मन्दिरों में “चीर बंधन” का प्रचलन है। पर अधिकांशतया गांवों, शहरों में सार्वजनिक स्थानों में एकादशी को मुहूर्त देखकर चीर बंधन किया जाता है।

इसके लिए गांव के प्रत्येक घर से एक एक नऐ कपड़े के रंग बिरंगे टुकड़े “चीर” के रूप में लंबे लटठे पर बांधे जाते हैं। इस अवसर पर “कैलै बांधी चीर हो रघुनन्दन राजा…सिद्धि को दाता गणपति बांधी चीर हो…” जैसी होलियां गाई जाती हैं। इस होली में गणपति के साथ सभी देवताओं के नाम लिऐ जाते हैं।

कुमाऊं में “चीर हरण” का भी प्रचलन है। गांव में चीर को दूसरे गांव वालों की पहुंच से बचाने के लिए दिन रात पहरा दिया जाता है। चीर चोरी चले जाने पर अगली होली से गांव की चीर बांधने की परंपरा समाप्त हो जाती है। कुछ गांवों में चीर की जगह लाल रंग के झण्डे “निशान” का भी प्रचलन है, जो यहां की शादियों में प्रयोग होने वाले लाल सफेद “निशानों” की तरह कुमाऊं में प्राचीन समय में रही राजशाही की निशानी माना जाता है।

बताते हैं कि कुछ गांवों को तत्कालीन राजाओं से यह “निशान” मिले हैं, वह ही परंपरागत रूप से होलियों में “निशान” का प्रयोग करते हैं। सभी घरों में होली गायन के पश्चात घर के सबसे सयाने सदस्य से शुरू कर सबसे छोटे पुरुष सदस्य का नाम लेकर “जीवें लाख बरीस…हो हो होलक रे…” कह आशीष देने की भी यहां अनूठी परंपरा है।

 

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