उत्तराखंड के इस मंदिर में कॉकरोच, गाय और पक्षियों को प्रतिदिन लगाया जाता है चावल का भोग, जानिए रहस्य

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देवभूमि उत्तराखंड के चार प्रवित्र धामों में से एक बद्रीनाथ धाम की महिमा अपरंपार है। हिम शिखर से घिरे भगवान बद्री विशाल के इस धाम में मनोकामनाओं के साथ साल भर देश और विदेश से श्रद्धालु पहुंचते हैं। अलकनंदा के तट पर बसा बद्रीनाथ धाम उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित है। सातवीं से नवीं …

देवभूमि उत्तराखंड के चार प्रवित्र धामों में से एक बद्रीनाथ धाम की महिमा अपरंपार है। हिम शिखर से घिरे भगवान बद्री विशाल के इस धाम में मनोकामनाओं के साथ साल भर देश और विदेश से श्रद्धालु पहुंचते हैं। अलकनंदा के तट पर बसा बद्रीनाथ धाम उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित है। सातवीं से नवीं सदी के बीच बना यह मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है। इस मंदिर के कपाट खुलने के बाद एक अनूठी परंपरा वर्षों से देखी गई है। मंदिर में भगवान बद्रीविशाल के लिए तो भोग बनता ही है साथ में यहां कॉकरोच, गाय और पक्षियों के लिए भी भोग बनाया जाता है। यहां कॉकरोच, गाय और पक्षियों को प्रतिदिन चावल का भोग लगाया जाता है।

हिमालय की गोद में बसा भगवान बद्री विशाल का पावन धाम।

भोग प्रक्रिया का बदरीनाथ मंदिर के दस्तूर में उल्लेख है। बदरीनाथ मंदिर के समीप गरुड़ शिला की तलहटी में कॉकरोच (गढ़वाली बोली में सांगला) दिखाई देते हैं, ये कॉकरोच सामान्य कॉकरोच से आकार में थोड़ा बड़े होते हैं। बदरीनाथ के धर्माधिकारी भुवन चंद्र उनियाल बताते हैं कि बदरीनाथ भगवान को प्रतिदिन केसर का भोग लगाया जाता है, जबकि कॉकरोच, गाय और पक्षियों को भी प्रतिदिन एक-एक किलो चावल का भोग लगाया जाता है।

बद्रीनाथ धाम में विष्णु भगवान के एक रूप बद्री नारायण की पूजा होती है। मंदिर में स्थापित मूर्ति के विषय में मान्यता है कि आदि शंकराचार्य ने आठवीं शताब्दी में पास में ही स्थित नारद कुंड से निकालकर इसे स्थापित किया था। बद्रीनाथ मंदिर के गर्भगृह में भगवान बद्रीनारायण की ३.३ फीट लम्बी शालीग्राम से निर्मित मूर्ति है। मूर्ति में भगवान के चार हाथ हैं, दो हाथ ऊपर उठे हुए हैं। एक में शंख और दूसरे में चक्र है, जबकि अन्य दो हाथ योगमुद्रा (पद्मासन की मुद्रा) में भगवान की गोद में उपस्थित हैं।

भगवान बद्रीविशाल के धाम में दर्शनों को पहुंचे श्रद्धालु।

बद्रीनाथ मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित पांच संबंधित मंदिरों में से एक है, जिन्हें पंच बद्री के रूप में एक साथ पूजा जाता है। यह धाम छह महीनों तक बंद रहता है। मन्दिर के कपाट अक्षय तृतीया के अवसर पर अप्रैल-मई के आसपास खुलते हैं और मन्दिर के कपाट भ्रातृ द्वितीया के दिन या उसके बाद अक्टूबर-नवंबर के आसपास सर्दियों के दौरान बंद होते हैं।