अतीत के झरोखे से : कव्वालियों-भजनों से मतदाताओं को रिझाते थे स्वामी परमानंद दंडी

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सुहेल जैदी/ रामपुर, अमृत विचार। शाहबाद से विधायक रहे स्वामी परमानंद दंडी मुस्लिम क्षेत्रों में पहुंचने पर अपने वाहन में लगे म्यूजिक सिस्टम पर कव्वालियों की कैसेट लगा देते थे। इसके बाद उनकी गाड़ी पर लगे लाउडस्पीकर पर कव्वाल गुलाम फरीद की गाई कव्वाली, भर दो झोली मेरी या मोहम्मद लौटकर मैं न जाऊंगा खाली… …

सुहेल जैदी/ रामपुर, अमृत विचार। शाहबाद से विधायक रहे स्वामी परमानंद दंडी मुस्लिम क्षेत्रों में पहुंचने पर अपने वाहन में लगे म्यूजिक सिस्टम पर कव्वालियों की कैसेट लगा देते थे। इसके बाद उनकी गाड़ी पर लगे लाउडस्पीकर पर कव्वाल गुलाम फरीद की गाई कव्वाली, भर दो झोली मेरी या मोहम्मद लौटकर मैं न जाऊंगा खाली… गूंज उठती थी। इसके अलावा हिंदू क्षेत्रों में पहुंचने पर मां शेरावाली, ओ मां शेरा वाली समेत तमाम भजन गूंज उठते थे।

मतदाताओं को उनकी यह ही अदा भा गई और जीते जी कोई भी उन्हें हरा नहीं पाया। अलबत्ता, कांग्रेस के प्रत्याशी चंद्रपाल सिंह हमेशा उनके निकटतम प्रतिद्वंदी रहे। वर्ष 1996 में स्वामी परमानंद दंडी ने लखनऊ के एक अस्पताल में आखिरी सांस ली। वह गेरुवे वस्त्र पहन माथे पर चंदन का लंबा टीका लगाकर अपनी गाड़ी में बैठकर निकलते तब लोगों को दूर से ही पता चल जाता था कि क्षेत्र में स्वामी जी घूम रहे हैं। उनके सफेद रंग के जोंगे में डेक लगी थी। नातों, कव्वालियों और भजनों की ढेरों कैसेट उनकी गाड़ी में भरी रहती थीं।

मुस्लिम क्षेत्र में कव्वालियां और हिंदू क्षेत्र में भजनों का गूंजना उन्हें मतदाताओं के करीब लाता चला गया। ऐसा नहीं कि वह चुनाव के दौरान ही गाड़ी में कव्वाली और भजनों के कैसेट बजाते हों। वह जब भी घर से निकलते रास्ते में कव्वाली और भजन सुनते रहते थे। उनका सादगी भरा जीवन सबको बहुत भाता था। जो उनका मेहमान बनता, उसे कढ़ी-चावल और छोले-रोटी अवश्य खिलाते थे। उन्होंने कभी छोटे-बड़े और हिंदू-मुस्लिम में भेदभाव नहीं किया। उसका ही परिणाम था कि उन्होंने दो बार भाजपा के टिकट पर चुनाव जीता और वर्ष 1996 में समाजवादी पार्टी के टिकट पर चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे।

आखिरी दिनों में अपनों को बहुत याद करते थे दंडी
1999 में बीमारी के चलते लखनऊ के एक अस्पताल में उनका निधन हो गया। बीमारी के दौरान अस्पताल में भर्ती विधायक स्वामी परमानंद दंडी को अपनों की कमी बहुत सालती थी। कवि और शिक्षक सचिन सिंह बताते हैं कि बच्चों से उनका प्यार ही था कि समाज में बेहद पिछड़े, दलित और दिव्यांग बच्चों ने उनके द्वारा चलाई जा रहे स्वयंसेवी संस्थाओं में आसरा पाया। वह आजीवन अविवाहित रहे।

स्वामी परमानंद दंडी का पहला चुनाव वर्ष 1991 में मेरे साथ हुआ। इस चुनाव में उन्होंने मुझे करीब 5000 वोटों से हराया था। वर्ष 1996 का चुनाव जीतने की पूरी उम्मीद थी। लेकिन, करीबियों ने ही खेल बिगाड़ दिया और वह चुनाव भी स्वामी जी जीत गए थे। यह चुनाव कांग्रेस और बीएसपी ने मिलकर लड़ा था। 100 सीटों पर कांग्रेस के प्रत्याशी चुनाव लड़ रहे थे और 325 सीटों पर बसपा के उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे। चंद्रपाल सिंह, पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष

 

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