जालौन का “पचनद” दुनिया का एकमात्र स्थान जहां होता है पांच नदियों का संगम, जानें
उरई (जालौन)। जिले में एक ऐसा स्थान है, जो दुनिया भर में अनूठा है। यहां स्थित “ पचनद” पर पांच नदियों का संगम होता है। यह भौगोलिक के साथ-साथ धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी बेहद महत्वपूर्ण है। बता दें कि जालौन जिले के उरई मुख्यालय से 65 किलोमीटर उत्तर पश्चिम में और इटावा से …
उरई (जालौन)। जिले में एक ऐसा स्थान है, जो दुनिया भर में अनूठा है। यहां स्थित “ पचनद” पर पांच नदियों का संगम होता है। यह भौगोलिक के साथ-साथ धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी बेहद महत्वपूर्ण है।
बता दें कि जालौन जिले के उरई मुख्यालय से 65 किलोमीटर उत्तर पश्चिम में और इटावा से 55 किलोमीटर दक्षिण पूर्व व औरैया से 45 किलोमीटर पश्चिम दक्षिण में स्थित प्राकृतिक सौन्दर्यता से परिपूर्ण अद्भुत स्थल है “ पचनद”। अनेक ऐतिहासिक पौराणिक मंदिरों का रमणीक स्थल है। विभिन्न ग्रन्थों व पुराणों में पचनद स्थल का वर्णन है, लेकिन दुर्गम वनों के बीच स्थित होने के कारण सुगमता के अभाव में यह स्थान वह प्रसिद्धि नहीं पा पाया जो इसे मिलनी चाहिए थी।
यहां यमुना नदी में चंबल, सिंध, कुवांरी और पहूज नदियां अपना अस्तित्व विलीन कर यमुनामयी हो जाती हैं। यह स्थान तीन जनपद जालौन, इटावा और औरैया की भागौलिक सीमा भी बनाता है। वहीं मध्य प्रदेश के भिंड जिले का थोड़ा सा भूभाग भी इस संगम का हिस्सेदार है। पंचपद संगम स्थल पर बने मंदिर की समिति “ पचनद समिति” के सदस्य डॉ आर के मिश्रा ने यूनीवार्ता के साथ शनिवार को खास बातचीत में बताया कि पंचनद संगम के आग्नेय दिशा तट पर बना प्राचीन मठ वर्तमान में सिद्ध संत श्री मुकुंद वन (बाबा साहब महाराज) की तपोस्थली के रूप में विख्यात है। विभिन्न प्रमाणों के आधार पर श्री मुकुंदवन वन संप्रदाय के नागा साधु थे, वह अपनी पीढ़ी के 19 वें महंत थे और वह पंचनद मठ पर तपस्या करते थे।
उनकी कीर्ति सुनकर रामचरितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास विक्रमी संवत 1660 अर्थात सन् 1603 में पंचनद पर पधारे और दोनों संतो का मिलन हुआ। इसके बाद दोनों संत गुसाई जी के आग्रह पर जगम्मनपुर के राजा उदोतशाह के यहां जगम्मनपुर पहुंचे और वहां बनने जा रहे किले की आधारशिला रखी। इसके दोनों संतों ने राजा को भगवान शालिग्राम, दाहिनावर्ती शंख, एक मुखी रुद्राक्ष भेंट किया जो आज भी जगम्मनपुर राजमहल में सुरक्षित और पूजित है। पचनद का महत्व सिर्फ इतना ही नहीं श्रीमद् देवी भागवत पुराण के पंचम स्कंध के अध्याय दो में श्लोक क्रमांक 18 से 22 तक पचनद का आख्यान आया है। जिसमें महिषासुर के पिता रम्भ और चाचा करम्भ ने पुत्र प्राप्ति के लिए पंचनद पर आकर तपस्या की। करम्भ ने पंचनद के पवित्र जल में बैठकर अनेक वर्ष तक तप किया तो रम्भ ने दूध वाले वृक्ष के नीचे पंचाग्नि का सेवन किया। इंद्र ने ग्राह्य (मगरमच्छ) का रूप धारण कर तपस्यारत करम्भ का वध कर दिया। द्वापर युग में महाभारत युद्ध के दौरान पंचनद के निवासियों ने दुर्योधन की सेना का पक्ष लिया था। इसके अलावा महाभारत पुराण में पचनद का उल्लेख है।
महाभारत युद्ध समाप्ति के बाद पांडू पुत्र नकुल ने पंचनद क्षेत्र पर आक्रमण कर यहां के निवासियों पर विजय प्राप्त की थी। महाभारत वन पर्व में पंचनद को तीर्थ क्षेत्र होने की मान्यता सिद्ध होती है। विष्णु पुराण में भी पंचनद का विवरण मिलता है, जिसमें भगवान श्री कृष्ण के स्वर्गारोहण व द्वारका के समुद्र में डूब जाने के उपरान्त अर्जुन की ओर से द्वारका वासियों को पचनद क्षेत्र में बसाए जाने का उल्लेख है। अन्य पुराणों और धर्म ग्रंथों से प्रमाणित होता है कि पंचनद पर स्थित सिद्ध आश्रम एक दो हजार वर्ष पुराना नहीं अपितु वैदिक काल का तपोस्थल है। अथर्ववेद के रचयिता महर्षि अथर्ववन ने पचनद के तट पर अथर्ववेद की रचना की। महर्षि अथर्ववन वंश की पुत्री वाटिका के साथ भगवान श्रीकृष्ण द्वैपायन (व्यास जी) का विवाह हुआ माना जाता है। जिनसे भगवान शुकदेव जी की उत्पत्ति हुई। कुरु राजा धृष्टराष्ट्र व गंगापुत्र भीष्म की सहायता से श्री कृष्ण द्वैपायन व्यास जी ने पंचनद पर एक विराट यज्ञ व धर्म सभा का आयोजन किया था। महर्षि अथर्ववन के काल से ही पचनद स्थित आश्रम पर आज भी वन संप्रदाय के ऋषि निवास करते हैं।
