स्वामी विवेकानंद की शिष्या थीं भगिनी निवेदिता, पूरा जीवन भारत को किया था समर्पित
इतिहास के पन्नों में ऐसे कई नाम छिपे हैं, जिनका भारत की उन्नति में योगदान अमूल्य है पर पीढ़ियां उन्हें भूलते जा रही है, उन्हीं कुछ नामों में से एक हैं स्वामी विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता जिन्होंने अपना पूरा जीवन भारत को समर्पित कर दिया। भारत के प्रति उनके प्रेम को उजागर करते हुए …
इतिहास के पन्नों में ऐसे कई नाम छिपे हैं, जिनका भारत की उन्नति में योगदान अमूल्य है पर पीढ़ियां उन्हें भूलते जा रही है, उन्हीं कुछ नामों में से एक हैं स्वामी विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता जिन्होंने अपना पूरा जीवन भारत को समर्पित कर दिया। भारत के प्रति उनके प्रेम को उजागर करते हुए बिपिन चन्द्रपाल कहते हैं – ”निवेदिता जिस प्रकार भारत को प्रेम करती हैं, भारतवासियों ने भी भारत को उतना प्रेम किया होगा – इसमें संदेह है’’।
28 अक्टूबर, 1867 को जन्मीं निवेदिता का वास्तविक नाम ‘मार्गरेट एलिजाबेथ नोबल’ था। एक अंग्रेजी-आइरिश सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक, शिक्षक एवं स्वामी विवेकानन्द की शिष्या- मार्गरेट ने 30 साल की उम्र में भारत को ही अपना घर बना लिया।
मात्र 10 साल की उम्र में अपने पिता को खोने के बाद उनका जीवन गरीबी में बीता। उनकी शिक्षा इंग्लैंड के एक चैरिटेबल बोर्डिंग स्कूल में हुई। सिर्फ 17 साल की उम्र में अपनी पढाई पूरी करने के बाद उन्होंने शिक्षक की नौकरी कर ली। 25 साल की उम्र में उन्होंने अपना भी एक स्कूल खोला और वह उस समय शिक्षा में अलग-अलग प्रयोग करने के लिए मशहूर थीं। इसके अलावा वे ज़िन्दगी का सच्चा सार जानना और समझना चाहती थीं और इसीलिए उन्हें महान विचारकों और सुधारकों की संगत बेहद पसंद थी।
साल 1895 में मार्गरेट के जीवन में सबसे बड़ा बदलाव आया। दरअसल, उन्हें एक निजी संगठन द्वारा एक ‘हिन्दू योगी’ का भाषण सुनने के लिए बुलाया गया था। यह योगी कोई और नहीं बल्कि स्वामी विवेकानंद थे। वह स्वामी जी के भाषण से इतना प्रभावित हुई की उन्होंने भारत आने का फैसला कर लिया।
जब विवेकानंद मार्गरेट से मिले तो उन्हें भी समझ में आ गया कि मार्गरेट भारतीय महिलाओं के उत्थान में योगदान कर सकती हैं। मार्गरेट ने उसी पल यह मान लिया कि भारत ही उनकी कर्मभूमि है। इसके तीन साल बाद, जनवरी, 1898 में मार्गरेट भारत आ गयीं। स्वामी विवेकानंद ने उनको 25 मार्च 1898 को दीक्षा देकर भगवान बुद्ध के करुणा के पथ पर चलने की प्रेरणा दी। दीक्षा के समय स्वामी विवेकानंद ने उन्हें नया नाम ‘निवेदिता’ दिया, जिसका अर्थ है ‘समर्पित’ और बाद में वह पूरे देश में इसी नाम से विख्यात हुईं।
दीक्षा प्राप्त करने के बाद निवेदिता कोलकाता के बागबाज़ार में बस गयीं। यहाँ पर उन्होंने लड़कियों के लिए एक स्कूल शुरू किया। जहाँ पर वह लडकियों के माता-पिता को उन्हें पढ़ने भेजने के लिए प्रेरित करती थी। निवेदिता स्कूल का उद्घाटन रामकृष्ण परमहंस की पत्नी मां शारदा ने किया था।
निवेदिता ने माँ शारदा के साथ बहुत समय बिताया। उस समय बाल-विवाह की प्रथा प्रचलित थी और स्त्रियों के अधिकारों के बारे में तो कोई बात ही नहीं करता था। पर निवेदिता को पता था कि केवल शिक्षा ही इन कुरूतियों से लड़ने में मददगार हो सकती है। उन्होंने अपने जीवन मे स्त्री शिक्षा के द्वारा भारत मे व्याप्त कुरीतियों को खत्म करने का प्रयास किया।
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