तुलसीदास महाकवि निराला की सांस्कृतिक चेतना का है उज्ज्वलतम इतिहास

तुलसीदास महाकवि निराला की सांस्कृतिक चेतना का है उज्ज्वलतम इतिहास

तुलसीदास महाकवि निराला की सांस्कृतिक चेतना का उज्ज्वलतम इतिहास है। यह निराला जी का ऐसा जीवित स्मारक है जिसकी तुलना कामायनी से सहज ही की जा सकती है। इसमें राष्ट्रीय भावना , ज्ञान और भक्ति से सम्पन्न कवि का लोक मंगलकारी रूप का मनोहारी चित्रण है । साथ ही प्रकृति स्वरूपा नारी की शक्ति , …

तुलसीदास महाकवि निराला की सांस्कृतिक चेतना का उज्ज्वलतम इतिहास है। यह निराला जी का ऐसा जीवित स्मारक है जिसकी तुलना कामायनी से सहज ही की जा सकती है। इसमें राष्ट्रीय भावना , ज्ञान और भक्ति से सम्पन्न कवि का लोक मंगलकारी रूप का मनोहारी चित्रण है । साथ ही प्रकृति स्वरूपा नारी की शक्ति , सौंदर्य और प्रेरणा का रहस्योद्घाटन भी।

तुलसीदास की प्रेरणा का स्रोत संभवतः रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कथाओं कहिनी की कथात्मक प्रलंब रचनाएँ हैं जिन्हें निराला जी बैलेड कहा करते थे। ये रचनाएं उन्हें प्रिय ही नहीं थीं बल्कि कंठस्थ भी थीं। डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार, वे भी एक ऐसा वेलेड लिखना चाहते थे जो उनकी ही रचनाओं में नहीं , हिन्दी में ही नहीं बल्कि विश्व साहित्य में बेजोड़ हो ।१ ‘ महान साहित्य के प्रणयन के महान चरित्र और पद रचना कठोर साधना की आवश्यकता होती है।

महान चरित्र वह, जो देश, जाति, धर्म और संस्कृति का दिशानायक हो। रवीन्द्रनाथ ने कालिदास और सूरदास पर लिखा था। पर वे महाकवि थे, लोकनायक नहीं। अपितु निराला ने तुलसी को चुना। डॉ. हजारी प्रसाद के शब्दों में इतना बड़ा लोकनायक महात्मा बुद्ध के बाद भारत में कोई नहीं हुआ । महाकवि सन्त तुलसीदास का चरित्र रामचरित मानस के रूप में सम्पूर्ण भारत में फैला हुआ है। बीसवीं शती में तो वह देश की सीमा रेखा पार कर विश्वजनीन और सार्वकालिक हो गया है।

यही तुलसी निराला के इस महत काव्य के नायक बनने में समर्थ थे, निराला अपनी ऐतिहासिक चेतना को और अन्य किसी भी महापुरुष के माध्यम से कर सकते थे। परन्तु उनके व्यक्तित्व के अनुकूल मात्र तुलसीदास थे, इसीलिए उन्होंने गोस्वामी जी को चुना। दूसरी बात वे प्रारंभ से ही रामचरित मानस पर एक अलग प्रकार की आस्था रखते थे, जिसे मनोहरा देवी ने अपने मधुर कंठ से जागृत किया था। मनोहरा देवी और रत्नावली में भी एक अद्भुत समानता है।

इसी का परिणाम है तुलसीदास,निराला की काव्य चेतना का शीर्ष बिन्दु यह रचना धारावाहिक रूप में पहले सुधा में प्रकाशित हुई थी और उसी (सन् 1938) वर्ष लीडर प्रेस से स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में निकली । निराला ने इतना श्रम अब तक किसी कविता में न किया था। तुलसीदास में राष्ट्र के प्रति उर्ध्वमुखी चेतना का जो लोकमंगलकारी रूप है , वह निराला के चरित्र को भी उजागर करता है।

निराला आसुरी शक्तियों के विरुद्ध निरन्तर जूझते रहने वाले दुर्धर्ष योद्धा थे। वे अपनी अद्वैतवादी दृष्टि से प्रकृति को जड़ता से मुक्त कर निरन्तर चेतना प्रदान करते रहे । संक्षेप में , रत्ना के रूप में , मनोहरा देवी की उत्प्रेरक शक्ति ही मानो इस आख्यानक प्रगीत की परम अभिव्यक्ति है ।

हिन्दी के अधिकांश समीक्षक तुलसीदास को परम्परागत काव्य के अंतर्गत रखते हुए खंडकाव्य मानते हैं। डॉ . शकुन्तला दुबे और डॉ. निर्मला जैन अपने शोध प्रबंधों में इसे सर्गविहिन भाव प्रधान खंड व्य मानती है। ध्यान से देखें तो तुलसीदास की कथावस्तु मूर्त एवं भौतिक जगत की घटनाओं पर आधारित होकर अमूर्त, अन्तश्चेतन की क्रियाओं पर विनिर्मित है। यहाँ अन्तश्चेतना की घटनाओं में एकान्विति है जिससे एक सूक्ष्म कथा सतह से उभर कर आती है।

वैसे इस प्रलम्ब रचना में चित्रकूट भ्रमण , रत्ना का भाई के साथ नैहर गमन , और पति की भर्त्सना आदि स्थूल घटनाओं की भी अवस्थिति है किन्तु ये भी अत्यंत कलात्मक रूप में प्रस्तुत हुई है । मूलतः तुलसीदास में मानसिक घात प्रत्याघातों का ही विश्लेषणात्मक चित्रण है। इस अन्तर्द्वन्द्व में अनुभूति की तीक्ष्णता है इसकी लय में अप्रतिहत आवेग है। कवि की रागात्मकता यहाँ हर कहीं उपस्थित है।

यही आत्मपरकता इस दीर्घ रचना को प्रगीत की भूमिका प्रदान करती है । खंड काव्य में जिस प्रकार कथा का और उसके विन्यास का आग्रह होता है वैसा आग्रह इस काव्य में नहीं है और न ही कथा कहना कवि का मुख्य आशय है , इसीलिए इसकी प्रवृत्तिवर्णनात्मक नहीं है ।२ ‘ अस्तु डॉ . शिवकुमार मिश्र के शब्दों में कहा जाय तो इसकी निर्मित खंड काव्य की निर्मिति नहीं है । शास्त्रीय भूमिका को छोड़ भी दें तो युग के नये संदर्भो की सूचना देने वाली जो प्रबंधात्मक कृतियाँ निराला के समकालीन कवियों द्वारा सामने लाई गई हैं तुलसीदास का निर्माण उनकी बुनावट से भी अपना पार्थक्य सूचित करता है।

३ ‘ इस रचना में जन विश्वासों और लोक कथाओं के अनुरूप अलौकिक घटनाओं का समावेश हुआ है । आत्मानुभूति का अप्रतिहत आवेग और जनविश्वास के अनुरूप कथा की बुनावट तुलसीदास को बेलेड की भूमिका प्रदान करती है । तुलसीदास में नाट्य वैचित्र्य की भी अनुपम सिद्धि हुई है, इसमें ओजस्वी सम्वादों के अतिरिक्त नाट्य संघियां भी स्पष्ट हैं , शायद इसी कारण समीक्षक इसे खंडकाव्य मानते हैं।

परन्तु बैलेड और आख्यानक प्रगीतों में भी इसकी संस्थिति हो सकती है , यह नहीं भूलना चाहिए । इस विषय पर गंभीर विचार करते हुए आचार्य वाजपेयी ने लिखा है कि वीर आख्यानक की संधियाँ और कार्यावस्थाएँ कथानक के भिन्न – भिन्न स्थलों में आकर उसके स्पष्ट विकास का निर्देश करती है।

परन्तु वीर गीतों में समग्रता का पक्ष प्रधान रहता है। उसका कथानक खंडों में विभाजित नहीं होता। घटनाएँ भी प्रायः पृष्ठभूमि में रहती हैं और गीतों की कड़ी विभिन्न अनुच्छेदों में बंधी रहती है वीरगीत अध्याय या सर्गों में बंधा नहीं रहता। एक ही केन्द्रिय घटना चित्रित होती है , जबकि वीरख्यान में घटनाओं की क्रमिक प्रगति और सर्गबद्ध विकास हुआ करता है ।

इसके अतिरिक्त कवि की प्रकृति भी वीरगीत और वीराख्यान की रचना में भिन्न प्रकार से संयोजित होती है । इन्हीं कारणों से राम की शक्ति पूजा और तुलसीदास को आख्यानक प्रगीत कहा गया है । उन्हें आख्यानक काव्य या खंडकाव्य नहीं कहा जा सकता। ४ ‘ आख्यान और प्रगीत के मक्खन मिसरी संयोग के कारण तुलसीदास हिन्दी काव्य धारा का श्रेष्ठ आख्यानक प्रगीत है। क्रमश: –

  • डाॅ. बलदेव

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